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और उदय नहीं, अपितु अनादि पारिणामिक भाव है। इसलिए कोई भी भव्य प्राणी त्रिकाल में कभी अभव्य नहीं होता और अभव्य कभी भव्य नहीं होता ।
आगम - जैन धर्म के मूल शास्त्र आगम कहलाते हैं। इनमें तीर्थंकर महावीर की वाणी के आधार पर गणधरों, ज्ञानी स्थविरों द्वारा गुंफित सूत्र-ग्रंथ समाविष्ट किए गए हैं। गणधरों द्वारा बनाए गए आगम 'अंग' तथा विशिष्ट ज्ञानियों द्वारा बनाए गए आगम 'उपांग' आदि कहलाते हैं। देखें- अंग, उपांग, गणधर, तीर्थंकर |
श्वेतांबर परंपरा में स्थानकवासी एवं तेरापंथ द्वारा बत्तीस आगम स्वीकृत हैं—ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद, एक
आवश्यक ।
परंपराएं अड़तालीस या चौरासी आगम
आर्यक्षेत्र - मनुष्यक्षेत्र का वह हिस्सा, जहां लोगों का जीवन सुसभ्य और शिष्ट होता है तथा अर्हत द्वारा प्रदत्त उपदेश के श्रवण का लाभ प्राप्त करने की सुविधा होती है।
आश्रव - कर्म - आकर्षण के हेतुभूत आत्म-परिणामों को आश्रव कहते हैं। उसके पांच प्रकार हैं - १. मिथ्यात्व २. अविरति ३. प्रमाद ४. कषाय ५. योग ।
विस्तार में उसके बीस प्रकार भी बताए गए हैं। कषाय-रागद्वेषात्मक उत्ताप को कषाय कहते हैं। उसके चार प्रकार हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ । इन्हें कषाय-चतुष्टयी कहते हैं। शब्दांतर से क्रोध, मान, माया और लोभ से रंजित आत्म-परिणामों को कषाय कहा जाता है।
अन्य श्वेतांबर भी मानती हैं।
केवलज्ञान - आत्मा द्वारा जगत के समस्त मूर्त एवं अमूर्त द्रव्यों एवं उनके त्रैकालिक सभी पर्यायों का प्रत्यक्ष बोध केवलज्ञान है। इसमें इंद्रियों और मन की कोई अपेक्षा नहीं रहती । आत्मा पर आए ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से इसकी प्राप्ति होती है। यह तेरहवें व चौदहवें गुणस्थान में तथा सिद्धों में होता है। देखें - गुणस्थान ।
केवलज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति केवलज्ञानी या केवली कहलाता है।
पारिभाषिक कोश
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