________________
छेदोपस्थापनीय चारित्र-विभागपूर्वक महाव्रतों की उपस्थापना को
छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। ___ सामायिक चारित्र में सावध योग का त्याग सामान्य रूप से होता है। छेदोपस्थापनीय चारित्र में सावध योग का त्याग छेद (विभाग या भेद) पूर्वक होता है। ___ इसका दूसरा अर्थ यह है-पूर्व पर्याय का छेदन होने पर जो प्राप्त होता है, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है। यह छठे से नौवें गुणस्थान
तक होता है। देखें-गुणस्थान। जाति-जीवों का एक ऐसा वर्गीकरण, जिसका आधार इंद्रियां हैं। जाति के
पांच प्रकार हैं-१. एकेंद्रिय २. द्वींद्रिय ३. त्रींद्रिय ४. चतुरिंद्रिय
५. पंचेंद्रिय। तिर्यंच-एकेंद्रिय से चतुरिंद्रिय तक के सारे प्राणी तथा पशु-पक्षी आदि
पंचेंद्रिय प्राणी तिर्यंच कहलाते हैं। शब्दांतर से देव, नारक और मनुष्य
को छोड़कर शेष सभी प्राणी तिर्यंच हैं। तीर्थंकर• धर्मचक्र प्रवर्तक। • साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-इन चार तीर्थों के
संस्थापक। अथवा द्वादशांगी-प्रवचनरूप तीर्थ के कर्ता। चार घनघाती कर्मों का क्षय करके जो केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि
आत्म-गुण प्राप्त कर लेते हैं तथा आठ प्रातिहार्य आदि विशिष्ट उपलब्धियों के धारक होते हैं, वे ही अर्हत, अरहंत, जिन या तीर्थंकर कहलाते हैं। नमस्कार महामंत्र का प्रथम पद उनके लिए प्रयुक्त है। जीवन की
समाप्ति पर वे सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। • प्रत्येक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी में भरतक्षेत्र तथा ऐरावत क्षेत्र में
चौबीस तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं। यह 'चौबीसी' कहलाती है।
देखें-अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी। • भरतक्षेत्र में वर्तमान 'चौबीसी' के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ व अंतिम
(चौबीसवें) तीर्थंकर महावीर थे। तीर्थंकरगोत्रनामकर्म-नाम और गोत्र कर्म की वह प्रकृति, जिसके उदय से
पारिभाषिक कोश
३६५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org