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करूंगा' इसलिए अध्ययन करना चाहिए। • 'मैं धर्म (शुद्ध आचार-विचार) में स्थित होकर दूसरों को भी _इस दिशा में मोडूंगा' इसलिए अध्ययन करना चाहिए।
इस निरूपण के परिप्रेक्ष्य में जब हम शिक्षा जगत की वर्तमान स्थिति का मूल्यांकन करते हैं तो यह बात बहुत स्पष्ट रूप में सामने आती है कि विद्यार्थियों ने विद्याध्ययन के मूल उद्देश्य भुलाकर उसे अक्षर-ज्ञान और डिग्री की प्राप्ति तक सीमित कर दिया है। मेरी दृष्टि में यह भयंकर भूल हो रही है। इसके परिणामस्वरूप विद्यार्थियों का जीवन अभिशाप बन रहा है। वे अंधकार में भटक रहे हैं। विद्या-संस्थान शिक्षा के बजाय राजनीति के अड्डे बन रहे हैं। मैं विद्यार्थियों से कहना चाहूंगा कि वे विद्याध्ययन के मूल उद्देश्य समझें, उन पर अपना ध्यान केंद्रित करें। राजनीति का दुश्चक्र बड़ा भयंकर होता है। इसलिए वे उससे सलक्ष्य बचें। अपने-आपको विद्यार्जन के लिए समर्पित कर दें। नैतिकता एवं सच्चरित्र से अपना जीवन भावित करें। इससे उनका जीवन सार्थक हो जाएगा। जीवन-निर्माण की दिशा स्वतः बन जाएगी। जाग्रत धर्म का स्वरूप
धर्म जीवन-जाग्रति एवं पवित्रता का एकमात्र साधन है। शांति का महामंत्र है। आप धर्म के नाम से चौंकें नहीं। वैसे आपका चौंकना अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि आज उसका स्वरूप विकृत हो गया है। वह बाह्य क्रियाकांडों एवं रूढ़ियों में जकड़ गया है। इसलिए जीवनजाग्रति एवं पवित्रता के उद्देश्य की पूर्ति करने में अक्षम हो रहा है, जीवन में शांति की अनुभूति कराने में नाकाम सिद्ध हो रहा है। ऐसे धर्म के प्रति लोगों में अनाकर्षण का भाव हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, पर मैं आप लोगों से जिस धर्म की बात कह रहा हूं, वह रूढिरूप धर्म नहीं, अपितु जाग्रत धर्म है। वह अपनी गुणात्मकता पूर्ण रूप से सुरक्षित रखे हुए है। वह धर्म है-सत्य और अहिंसा की साधना, संयम और समता की आराधना। धर्म के इन मौलिक सिद्धांतों की भित्ति पर हमने अणुव्रत-आंदोलन के रूप में एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरू कर रखा है। इसके अंतर्गत समाज के सभी वर्गों के लिए ऐसे छोटे-छोटे संकल्प रखे गए हैं, जिन्हें व्यक्ति बिना किसी विशेष कठिनाई के निभा सकता है, पर छोटे-छोटे होने के बावजूद, उनमें अद्भुत सृजनात्मक शक्ति है। आज
विद्यार्थियों की जीवन-दिशा
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