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में माता के सम्मान में कहा गया है-मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, गुरुदेवो भव। यहां ध्यान देने की बात यह है कि गुरु और पिता से भी पहले माता का आराधक बनने को कहा गया है। जैनागमों में तो माता को देव और गुरु की जन्मदात्री कहा गया है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि माता के सामने छोटी बात कही कैसे जाती है।
नई सभ्यता में पलनेवाली आज के बच्चे मित्रों से प्रेमपूर्वक बोलेंगे, सारी दुनिया के साथ सभ्यता का व्यवहार करेंगे, पड़ोसी और अन्यान्य चापलूसों से शिष्टता बरतेंगे, पर माता से तो शायद औपचारिकता के रूप में भी कइयों का चौबीस घंटों में दो मिनट भी बोलने का काम नहीं पड़ता होगा। कैसी बात है कि जिसने पाला-पोसा वह दूर और दूर के लोग नजदीक! मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि वे कैसे मनुष्य हैं। क्या उनकी तरक्की बोझ नहीं मरती, जो अपने माता-पिता से बोलने शरमाते हैं ? मां रही पुराने युग की, सुपुत्र रहे नई लाईट के। ऐसी स्थिति में भला उससे कैसे बोलें! उनके लिए शायद मां तो बिना टके-पैसे की नौकरानी है। एक-एक पैसे के लिए मां के प्रति असभ्य और गंदे शब्दों का व्यवहार पुत्र के लिए कहां तक शोभास्पद है, यह वे स्वयं समझ सकते हैं।
पुत्र मां के लिए सुख-सुविधा के पर्याप्त साधन जुटा सके, यह उसके हाथ की बात नहीं भी हो सकती, पर दुर्व्यवहार क्यों? यह तो उसी के हाथ है। वह शायद मां को धन की थैली लाकर न दे सके, पर दुर्वचन क्यों? क्यों बक-बक करती है'-ऐसे शब्द जब माता पुत्र के मुख से सुनती है, तब क्या उसे अपने हृदय पर पत्थर नहीं धरना होता? शरम आनी चाहिए उस पुत्र को! उसकी विद्या को! उसका विवेक कौन-सी भट्ठी में जल जलकर खाक हो जाता होगा! माता के पवित्र उपकार का बदला कभी चूक नहीं सकता। यदि पुत्र माता-पिता को काबड़ में बिठाकर जीवन भर घुमाता फिरे, फिर भी वह ऋणी ही रहेगा। उस व्यक्ति की मानवता लज्जित होती है, जो पुत्र होकर माता का उपकार भूल जाता है। वह कृतघ्नी है, जो माता से अव्यावहारिक बनता है।
एक बात माताओं से भी कहना चहता हूं। उनका भी कुछ कर्तव्य होता है। प्रायः घरेलू झगड़े सबके साथ समान व्यवहार के अभाव में
पुरानी और नई पीढ़ी के बीच
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