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१४१ : पुरानी और नई पीढ़ी के बीच
मैंने देखा है, माताएं बच्चों को जी-भर पीटती हैं। माना, बच्चा अज्ञानी है। कोई-कोई जिद्दी भी होता है। मनुष्य तंग आकर कभी उत्तेजित भी होता है, पर इस तरह निर्दयता से पीटना और मां के हाथों से पीटना, कहां तक उचित है? माता आखिर माता है। वह जाननी है। उसे बच्चे के साथ अज्ञानी नहीं बन जाना चाहिए। आखिर बच्चे को मां के सिवाय और आधार ही क्या है? उसकी जिद चलेगी भी तो कहां? वह कहां जाकर पुकारेगा? आजकल की नवमाताएं थोड़े में उकता जाती हैं। कभी-कभी तो झगड़ा होता है सास-बहू, देवरानी-जेठानी और भाभीननद का। वहां तो वे बोल नहीं सकतीं। वहां का गुस्सा निकलता है बच्चों पर। मैं नहीं समझ पाता, उस समय उनका मातृत्व कहां सो जाता है। माता तो स्नेह की पुतली होती है। उसे इतनी कठोरता, जिसमें कि नृशंसता आ जाती हो, नहीं बरतनी चाहिए। यह अलग बात है कि कभी-कभी बच्चे को डांटना भी पड़ता है, गलत रास्ते से रोकने का ध्यान भी रखना होता है, पर सुधार का तरीका पिटाई और तर्जना नहीं है। बच्चों को ज्यादा पीटना उन्हें अपने हाथ से गमा देना है। पीटने से बच्चा निःशंक बन जाता है। उसके मन में भय भी नहीं रहता। दिन-भर चक-चक करते रहना भी सुधार के बदले बिगाड़ ही है। एक बार कहने की बात बार-बार कहते ही रहना बच्चे के स्वभाव को चिड़चिड़ा कर देता है। फिर भला आज के अध्ययनशील विद्यार्थी तो दूसरे की बात सुनना तक पसंद नहीं करते।
मैं यह भी जानता हूं कि बच्चे आगे चलकर क्या करेंगे। चार पैर हो जाने के बाद मनुष्य भी पशु बन जाते हैं। वे अपनी माता का ऋण भूल जाते हैं। मैं जब यह बात सुनता हूं कि अमुक ने मां को मुंहतोड़ जवाब दिया, गाली दी, लड़ाई की तो अत्यंत खेद होता है। इस कोटि के लोग यह क्यों नहीं सोचते कि हम बेटे हैं या पेट के कीड़े? वेदों • ३४२ -
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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