________________
सच्चे हैं। बड़े अच्छे हैं।' एक बार कहा, दो बार कहा। मैंने देखा-जज ने आंख उठाकर बड़े आत्म-गौरव के साथ कहा-'क्या विशेषता बखानते हो? मैं गंदगी नहीं खाता, यह क्या बड़ी बात है ? मैंने कोई मेवा-मिष्टान नहीं छोड़ा है। विशेषता तो तब थी. जब मैं तनख्वाह भी नहीं लेता। मैं रिश्वत नहीं खाता, यह तो इन्सानियत के नाते मेरे लिए लाजिमी है।' इस तरह सत्यवाद की वाणी में ओज होगा। उसके मुंह आत्मा बोलेगी।
दार्शनिक-सैद्धांतिक दृष्टि से भी अज्ञानी और मूढ़-मिथ्यादृष्टि में अंतर है। अज्ञानी बारहवें गुणस्थान तक रहता है और मिथ्यादृष्टि प्रथम में। अज्ञानी बुरा नहीं माना जाता। उस पर दया होती है, रोष नहीं; दया होती है, डाह नहीं।
अज्ञानी का पाप, पाप नहीं, ऐसी बात नहीं है। पाप तो पाप ही है। दादे की दाढ़ी खींच लेने पर बच्चा पीटा नहीं जाता। दादा नाराज नहीं होता, प्रत्युत विनोद करता है। अज्ञानी-कृत अपराध पर व्यक्ति को सहसा करुणा आती है। उसके अज्ञान पर सहसा थोड़ा-सा अफसोस होता है। मूढ़ में जड़ता होती है। वह सीधी बात को भी उलटी लेता है। उस पर दया, करुणा और अनुकंपा की जगह घृणा और ग्लानि होती है।
अज्ञानी को प्रतिबोध दिया जा सकता हौ, पर मूढ़ को कौन समझाए! सोए हुए को जगाना सहज है, पर जो जागता हुआ नींद का बहाना लिए पड़ा है, उसे कैसे जगाया जाए! अज्ञानी ऋजु होता है और मूढ़ वक्र और जड़। अतः अज्ञ से मूढ़ कहीं अधिक बुरा है।
अज्ञ और मूढ़
- ३४१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org