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________________ कि उसका ज्ञान कहीं चला नहीं जाता, आवृत नहीं हो जाता, किंतु विकृत हो जाता है। मूढ़ बुरे को अच्छा और अच्छे को बुरा मानता है। अज्ञ जानता नहीं, किंतु मूढ़ तो विपरीत जानता है। आज अज्ञानियों से भी मूढ़ों की संख्या ज्यादा है। वे बुराइयां तो करते ही हैं, साथ-ही-साथ ऐसा भी मानते हैं कि जो कुछ संसार में चलता है, वह कोई बुरा थोड़े ही है। आज हिंसादि कुछ प्रवृत्तियां बुराई से ऊपर उठ गई हैं और कुछ झूठ तो सत्य में परिवर्तित हो गया-सा लगता है। आए दिन व्यक्ति पचासों बार ऐसा झूठ बोलता है, जिसे वह झूठ ही नहीं समझता। व्यापारी जानता है कि दो खाते रखना सरासर गुनाह है। इसके बावजूद न जाने वह क्यों जानबूझकर अनजान बन जाता है। वह पहचानता है, चीज खराब है, कम कीमत की है, तथापि वह ग्राहकों को अच्छी बताता है, उसकी पूरी कीमत मांगता है। लगता है, बाजार का प्रचलन ही ऐसा हो गया है। वहां झूठ भी सत्य के रूप में बोला जाता है। रिश्वत लेना और देना दोनों ही अपराध हैं। देनेवाला तो देता है काम निकालने के लिए, पर लेनेवाले क्यों ले? किंतु बहुधा देखा जाता है कि जो नहीं लेता है, उसे देनेवाले फिसला देते हैं। वे कहते हैं-'क्या पड़ा है कोरे आदर्शवाद में! हमने बहुतों को देखा है। क्या आपके बालबच्चे नहीं हैं? मैं भी तो कुछ समझ-सोचकर देता हूं।...' बस फिर क्या ? मानो ऊंघते को शय्या मिल गई। भले ही रिश्वत लेकर लेनेवाला राजी हो ले। 'इतने में ही अपना काम बन गया'-ऐसा कहकर देनेवाला राजी हो ले, किंतु अंततः पाप-अपराध करनेवालों की आत्मा रोएगी अवश्य। अपराधी चाहे कितने ही आत्म-गौरव की डींगे हांके, पर उसका अंतर प्रतिक्षण भयभीत रहेगा। बात करते समय उसकी जबान दबी-सी चलेगी। भले दूसरे को विश्वास के जाल में फंसाने के लिए वह जीभर प्रयत्न करे, पर उसका हृदय धड़कता रहेगा। सफाई (कोरे बयान) उसे अभय नहीं बना सकती। सच्चाई की भाषा में आत्मा होगी। जयपुर में एक मुस्लिम जज मेरे पास आए। उनकी शहर-भर में प्रतिष्ठा थी कि ये घूस नहीं लेते। एक भाई ने उनके सामने ही मुझसे कहा-'आचार्यजी! ये भाई साहब रिश्वत नहीं लेते। बड़े • ३४० - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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