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लालसा छोड़ने को तैयार नहीं है। धनी ही महान है अर्थात धन ही बड़प्पन का मानदंड है - यह दोषपूर्ण चिंतन सब जगह देखा जा रहा है। इसके स्थान पर संयमी ही महान है वह बात जब तक लोग नहीं समझ लेंगे, तब तक लालसा कम करने का सिद्धांत लोक- दृष्टि में उपादेय नहीं हो सकेगा; और जब तक लालसा कम नहीं होगी, तक तक आवश्यकताएं बढ़ती रहेंगी। यह तो बहुत स्पष्ट ही है कि आवश्यकताओं की वृद्धि में सुख की कमी रहेगी, क्योंकि अधिक आवश्यकतावाले व्यक्ति आत्मनिर्भर नहीं हो सकते और आत्मनिर्भर हुए बिना दूसरे की अपेक्षा रखना नहीं छूट सकता। जब तक दूसरों की अपेक्षा रहती है, तब तक शोषण और दमन हुए बिना नहीं रह सकता और इन दोनों में सब-के-सब वाद अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। इसलिए अपने और पराए कल्याण की कामना करनेवाले व्यक्तियों को सबसे पहले संयम का अभ्यास करना चाहिए । उसमें भी धार्मिक पुरुष को एक विशेष खयाल रखना चाहिए कि वह संयम-धर्म ऐहिक फल प्राप्ति की भावना से न पाले अर्थात उसके द्वारा पुण्य, स्वर्ग एवं भौतिक सुख पाने की अभिलाषा न रखे। धर्म तो वास्तविक शांति का एक साधन है । इसी लिए सब लोगों को धर्म के द्वारा केवल लौकिक प्रयोजन साधने की भावना कतई त्याग देनी चाहिए।
धर्म की आत्मा को पहचानें
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