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हिंसा और अहिंसा के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण यह है कि जिस संकल्पी हिंसा का त्याग है, वह धर्म है और जो शेष हिंसा का आचरण है, वह धर्म नहीं है। यदि अनिवार्य हिंसा को अधर्म माना जाए तो फिर निर्बाध रूप से दुनिया का व्यवहार कैसे चल सकेगा, ऐसी शंका करना बिलकुल व्यर्थ है। पूर्ण अहिंसा से दुनिया का काम नहीं चल सकता-ऐसा कहनेवाले यह समझें कि काम नहीं चल सकता, इसी लिए तो जगह-जगह स्वार्थ हिंसा और अनिवार्य हिंसा होती है, पर इसका मतलब यह नहीं कि सांसारिक कार्यों को संपादित करने के लिए की जानेवाली हिंसा को अहिंसा मान लिया जाए। यह तीन काल में भी नहीं हो सकता। हां, यह हो सकता है कि हिंसा के इन प्रकारों के लिए गृहस्थ अपने को विवश माने और अनिवार्य हिंसा के प्रति अपने दिल में खेद करता रहे। अर्थात उसमें लिप्त न हो, अनासक्त की भांति रहे। यदि अहिंसा का यह सिद्धांत आंशिक रूप में भी अपना लिया जाए तो विश्व-मैत्री के प्रसार में बहुत सहायता मिल सकती है।
संयम का अर्थ है-आत्मवृत्ति रोकना। संयम आत्म-साधना अथवा आध्यात्मिक मार्ग के लिए जितना आवश्यक और कल्याणकारी है, उतना ही समाज-नीति एवं राजनीति में भी महत्त्वपूर्ण है। इसके बावजूद इतना बहुत स्पष्ट है कि परमार्थ-दृष्टि से जैसा संयम साधा जा सकता है, वैसा अन्य किसी दृष्टि से नहीं। अपेक्षित है संयम का अभ्यास ____ जीवन की आवश्यकताएं संयम में उतनी बाधक नहीं, जितनी बाधक भोग और ऐश्वर्य की आकांक्षाएं हैं। जब तक लोग धनकुबेरों को महान मानेंगे, तब तक जगत की स्थिति निरापद नहीं हो सकेगी। आज से हजारों वर्ष पहले लोग धनियों की अपेक्षा संयमी पुरुषों को अधिक मानते थे। यही तो कारण है कि उस समय के धनिक अभिमान और स्वार्थ की पराकाष्ठा तक नहीं पहुंच पाते थे और न जन-साधारण को अपने से तुच्छ या पददलित ही मानते थे। सबके मन में परस्पर भ्रातृत्वपूर्ण सम्मान था, परंतु आज की समूची परिपाटी ठीक उससे विपरीत है। अतएव आज साधारण लोग धनिकवर्ग का अंत करने को तुले हुए हैं। जगह-जगह पर धनिकों और निर्धनों में संघर्ष हो रहा है। इस स्थिति में भी धनी एवं निर्धन-इन दोनों में से कोई एक धन की
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- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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