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साधन ही धर्म है। शांति-मात्र का साधन धर्म नहीं हो सकता। भगवान महावीर की वाणी में धर्म की परिभाषा इस प्रकार है
धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो।
देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥ अहिंसा-संयम-तपस्या रूप जो आध्यात्मिक विकास का साधन है, वही धर्म है। इन तीनों (अहिंसा, संयम, तपस्या) से अलग कोई भी प्रवृत्ति धर्म की परिधि में नहीं आ सकती। अहिंसा क्या है
हिंसा की विरति का नाम अहिंसा है। मन, वाणी और शरीर से, कृत-कारित-अनुमति से, त्रस व स्थावर-इन दोनों प्रकार के प्राणियों का निज की असत्प्रवृत्ति के द्वारा प्राणवियोग करने का नाम हिंसा है। वह चार प्रकार की है१. निरपराध जीवों की किसी प्रयोजन के बिना संकल्पपूर्वक जो
हिंसा की जाती है, वह संकल्पजा हिंसा है। २. अपना या पराया मतलब साधने के लिए जो प्राण-वध किया
जाता है, वह स्थार्थहिंसा है। ३. कृषि, वाणिज्य आदि गृह संबंधी कार्यों में जो आवश्यक हिंसा
होती है, वह अनिवार्य हिंसा है। ४. अपनी असावधानी से जो हिंसा होती है, वह प्रमाद हिंसा है।
मन, वाणी एवं शरीर से, कृत-कारित-अनुमति से चारों प्रकार की हिंसा का त्याग करने से ही पूर्ण अहिंसा हो सकती है, अन्यथा नहीं। यद्यपि गृहस्थों के लिए पूर्ण हिंसा त्यागना असंभव है, तथापि उन्हें कमसे-कम संकल्पजा हिंसा का परित्याग तो अवश्य करना चाहिए, क्योंकि जितने भी पारस्परिक संघर्ष और सांप्रदायिक कलह होते हैं, वे प्रायः संकल्पी हिंसा से ही पैदा होते हैं। संकल्पी हिंसा ही प्रतिशोध की भावना को जन्म देती है। उसे सफल बनाने के लिए पग-पग पर विरोधियों का छिद्रान्वेषण करना जरूरी बन जाता है। उससे आत्मवृत्तियां मलिन बनती हैं और ऐसी दशा में सारी गतिविधियां पतन की ओर झुक जाती हैं। अतएव धार्मिक गृहवासियों के लिए संकल्पी हिंसा का परित्याग तो नितांत आवश्यक है।
धर्म की आत्मा को पहचानें
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