SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुरुपयोग कर बैठते हैं कि वैसी हालत में धर्म के प्रति अरुचि हो जाए तो उसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। यदि भारतवासी क्षमा, सहिष्णुता और शांति का प्रतीक अहिंसा को न भूलें तो भारतवर्ष पूर्ण शांति एवं वास्तविक स्वराज्य का अनुभव कर सकता है। मेरा विश्वास है कि विचारकगण यदि इस सिद्धांत की समीक्षा करेंगे तो उन्हें अवश्य ही इसमें समता का बीज मिलेगा। धर्म के नाम पर जो आज अशांति-कलह फैला हुआ है, उसे रोकने के लिए यह सिद्धांत अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा। धर्म की मीमांसा दुनिया में बहुत-से ऐसे व्यक्ति हैं, जो धर्म की कतई आवश्यकता नहीं समझते, प्रत्युत उसे तीव्र तिरस्कार की दृष्टि से देख रहे हैं, जबकि वास्तव में धर्म सदा और सब कामों में अत्यंत आदरपूर्वक अपेक्षा करने योग्य तत्त्व है। फिर कई व्यक्ति तो ऐसे हैं, जो धर्म शब्द के वैज्ञानिक अर्थ और उसकी परिभाषा का ठीक-ठीक निर्णय करने में असमर्थ हैं। वे धर्मः सर्गो निसर्गवत्-इस कोश-वाक्य की दुहाई देकर वस्तुस्वभाव को ही धर्म मान रहे है। उष्णता अग्नि का धर्म है। ठंडक पानी का धर्म है। रोटी खाना भूखे का धर्म है। पानी पीना प्यासे का धर्म है। चोरी करना चोर का धर्म है। मांस खाना मांसाहारी का धर्म है। इस प्रकार स्वभाववाची धर्म शब्द को आत्म-साधना की श्रेणी में रखकर धर्म की विडंबना कर रहे हैं। _ 'जो जिसका कर्तव्य है, वही उसका धर्म है, कर्तव्य से पृथक कोई धर्म नहीं है' इस मान्यता के आधार पर कुछ व्यक्ति यों कहते हैं कि जिस व्यक्ति, जिस जाति और जिस संस्था का जो कर्तव्य है, उसे वही करते रहना चाहिए। अपने कर्तव्य से च्युत होनेवाले मनुष्य धर्म-भ्रष्ट हो जाते हैं। मैं पूछना चाहता हूं कि ऐसा कहनेवाले क्या शोषण, कलह एवं युद्ध आदि को प्रोत्साहन देते हुए धर्म की अवहेलना नहीं कर रहे हैं। कई लोग जैसे-तैसे तृप्ति पहुंचाने के साधनों को ही धर्म मान रहे हैं। सिर्फ ऐहिक सुख-शांति की अभिसिद्धि के लिए ही जी-जान से यत्न कर रहे हैं, आवश्यकता के उपरांत धन-धान्य का संग्रह करने में जुट रहे हैं। यह बिलकुल ठीक है कि जो शांति का साधन है, वह धर्म है, पर इसके साथ ही इतना और समझ लेना आवश्यक है कि पारमार्थिक शांति का .३३२ - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy