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१३९ : अपने-आपको सुधारें!
एक ओर आज की स्थिति है, दूसरी ओर संतप्त मानव, जो युग के थपेड़ों व परिस्थितियों से विकल, अत्राण, उदास और खोया-खोया-सा प्रतीत होता है। सदियों की गुलामी के बाद भारतीय जन-मानस सोचता था
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं, भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः। इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे,
हा हन्त! हन्त! नलिनी गज उज्जहार॥ न जाने किस कवि ने इस श्लोक की रचना की होगी, पर यह श्लोक आज के भारतीय जन-मानस का सही चित्रण है। भंवरा कमलकोष में बैठा है, रस-लोलुप होकर बैठा है। उसे क्या पता था कि सूर्य अस्त होता है। कमल की पंखुडियां बंद हो गईं। स्वच्छंद भंवरा बंद गया। सीखचों में नहीं, कमल की कोमल पंखुड़ियों में। बंदी बनकर भी उसने सोचा-खैर! विश्राम करूंगा। रात बितेगी, प्रभात होगा, कमल विकसित होगा और मैं उड़ जाऊंगा। जो स्वतंत्रता जीवन-सिद्ध अधिकार है, उसका उपयोग करूंगा। वह इसी आशा में रात बिताने लगा। बंदी बनकर कमल में बैठा रहा कि जहां कि हवा नहीं, प्रकाश नहीं। बस, एकमात्र आशा ही उसका आधार थी। क्रमशः रात बीतने लगी। उसकी आशा में सफलता दीखने लगी। प्रहर व्यतीत हुआ। अर्द्ध-रात्रि का लंघन हुआ। उसे स्वतंत्रता के क्षण नजदीक आते प्रतीत हुए। प्राची में पौ फटी। कुछ-कुछ उजाला हुआ। भंवरा उल्लसित हुआ। प्रकाश के साथ-साथ उसकी आशा जो साकार होने को थी। उसने कलरव सुना। आशावादी श्रद्धालु भंवरे का हृदय फड़क उठा-अब तो दो-चार क्षण में ही मुक्ति है! दो-चार क्षण में ही मुक्ति है! पर इतने में एक मदोन्मत्त हथनी आई •३३६
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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