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________________ १३८ : धर्म की आत्मा को पहचानें* धर्म की जड़ को मजबूत करने का प्रयास जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढई। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे।। भगवान महावीर ने धर्म को सबसे अधिक आवश्यक जानकर ही इस प्रकार उपदेश किया था कि जब तक बुढ़ापा न आए, शरीर में रोग न बढ़े, इंद्रियों की शक्ति क्षीण न पड़े, उससे पहले ही धर्म करने के लिए सावधान हो जाना चाहिए। इस उपदेश-गाथा का माल्यकुसुम की भांति जनता ने स्वागत किया। अपने जीवन को धार्मिक बनाकर संसार-सिंधु से तरने में समर्थ हुई, कष्ट-परंपरा से छुटकारा पाया। आज भी अनेक पुरुष उस दुःख-परंपरा के पार पहुंचने की तैयारी कर रहे हैं, परंतु समय की विचित्रता से ऐसे व्यक्ति भी प्रचुर मात्रा में होते जा रहे हैं, जो धर्म की मौलिकता एवं महत्ता मूल से ही नहीं पहिचान रहे हैं और उसे विश्व-उन्नति में बाधा डालनेवाला मान रहे हैं। उनकी वाणी, लेखनी, प्रचार तथा कार्यों का एक ही लक्ष्य रहता है कि ज्योंत्यों धर्म का अंत हो जाए। वे कहते हैं कि धर्म का अस्तित्व मिटाकर ही हम सुख की सांस ले सकते हैं। यद्यपि इस प्रकार के निःसार विचार आर्य भूमि एवं आर्य संस्कृति में टिक नहीं सकते, जल-बुदबुद की तरह बिलबिला जाते हैं, तथापि वे वैसा किए बिना नहीं रहते, मन के मोदक खाए बिना नहीं रहते। इस स्थिति में भी यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि धर्म की जड़ को मजबूत करने के लिए जगह-जगह पर धार्मिक सम्मेलन आयोजित किए जा रहे हैं। धर्म की असलियत पर लोगों का उत्साह बढ़ रहा है। *हिंदी तत्त्व-ज्ञान-प्रचारक समिति द्वारा अहमदाबाद में संयोजित धर्म-सम्मेलन में प्रदत्त विचार। धर्म की आत्मा को पहचानें ३२९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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