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हैं। दोनों का अपना-अपना उपयोग है। श्रद्धा-भक्ति के स्थान पर श्रद्धाभक्ति का महत्त्व है तथा आचार के स्थान पर आचार का । श्रद्धा-भक्ति का कार्य आचार नहीं कर सकता और आचार का कार्य श्रद्धा-भक्ति नहीं कर सकती। अतः इन दोनों का सामंजस्य अपेक्षित है। दोनों का समन्वित रूप ही उपासना का वास्तविक रूप है और इसी से लक्ष्य की संसिद्धि संभव है ।
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ज्योति जले : मुक्ति मिले
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