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________________ भूसा तो धान के साथ-सहज रूप से निष्पन्न हो जाता है। भौतिक सिद्धियां भूसे के समान हैं। परमात्मा की उपासना से होनेवाले आत्मोदय के साथ आनुषंगिक फल के रूप में वे सहज ही मिल जाती हैं। उनके लिए उपासना करना कहां की समझदारी है? जो लोग ऐसी नासमझी करते हैं, वे दोहरा नुकसान उठाते हैं। उन्हें न तो भौतिक सिद्धियां मिलती हैं और न आत्मोदय की दिशा ही। गीता में कहा गया हैकर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन। अर्थात् व्यक्ति कर्म करने का अधिकारी है, फल की आकांक्षा उसे नहीं करनी चाहिए। भाषांतर से कहा जाए तो यह निष्काम कर्म करने की प्रेरणा है। कामना करनेवाला बहुत बड़े लाभ से वंचित रह जाता है। उपासना क्यों ___ कुछ लोग इस भाषा में सोचते हैं कि ईश्वर ने हमें पैदा किया है, वह हमारी सार-संभाल करता है, इसलिए हमें उसकी उपासना करनी चाहिए। मेरी दृष्टि में यह चिंतन सही नहीं है। माता-पिता भी पैदा करते हैं, वे भी सार-संभाल करते हैं। ऐसी स्थिति में यह ईश्वर की उपासना का कोई आधार नहीं बनता। इस दृष्टि से परमात्मा की उपासना करना कोई महत्त्व की बात नहीं है। ईश्वर घट-घटव्यापी है, इसलिए उसकी उपासना करनी चाहिए, यह भी कोई संगत बात नहीं है। आकाश से बढ़कर कोई व्यापक तत्त्व सृष्टि में है ही नहीं। तब प्रश्न पैदा होता है कि उपासना का उद्देश्य क्या होना चाहिए। इसका सीधा-सा समाधान है-हमारा मन व्यग्र है। वह इधर-उधर भटकता रहता है। हम ईश्वर को केंद्र-बिंदु (आधार) मानकर अपने भटकते मन को एकाग्र बना सकें। जो परमात्म-पद हमें पाना है, उस पर हमारी बुद्धि और चिंतन केंद्रित बने। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि साधना में तल्लीन हुए बिना सफलता प्राप्त नहीं होती। अर्जुन यदि एकाग्र और तल्लीन नहीं होता तो लक्ष्य को कैसे वेध पाता? द्रोणाचार्य की परीक्षा में उत्तीर्ण कैसे हो पाता? हम भी एकाग्रचित्त होकर ही अपना लक्ष्य वेध सकते हैं। उपासना के दो रूप उपासना के दो रूप हमारे सामने आते हैं-भक्ति और आचार। कुछ लोग श्रद्धा-भक्ति को ही सब-कुछ मानते हैं, तो कुछ लोग आचार को। मैं मानता हूं कि श्रद्धा-भक्ति और आचार दोनों ही आवश्यक तत्त्व उपासना : क्या : क्यों -- ३२५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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