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बनने की प्रेरणा देते हैं। दूसरे शब्दों में वे संयम के प्रतीक होते हैं। इसलिए साधु-संतों का स्वागत-अभिनंदन प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से संयम का ही स्वागत-अभिनंदन है। भारतीय जनों से अपेक्षा
भारतीय संस्कृति संयमप्रधान संस्कृति रही है। संसार-भर के लोग भारतवर्ष से चरित्र और संयम की शिक्षा लेते रहे हैं। आज भी संपूर्ण विश्व की दृष्टि भारतवर्ष पर टिकी है, लेकिन हम यदि देश की आंतरिक स्थिति का अवलोकन करें तो वह बड़ी दयनीय-सी प्रतीत होती है। यह कितनी विषमता की बात है ! पर इससे भी अधिक यह भारतीय जनों के लिए गंभीर आत्मालोचन एवं चिंतन की बात है। इस संदर्भ में एक बात समझने की है। जिस अतीत की परंपरा के नाते विश्व में भारत का गौरव है, उससे उन्हें अहंकार व अपनी आंतरिक दुरवस्था में हीनभाव नहीं लाना है। भगवान महावीर ने कहा-नो हीणे नो अइरित्ते। अर्थात व्यक्ति न तो अपने को हीन माने और न ही अतिरिक्त। उन्होंने हीनभाव को उतना ही हेय माना, जितना अहंभाव को। जहां अहंकार आत्म-गुणों को ढकता है, वहीं हीनभावना उनके प्रकटीकरण एवं विकास में बाधक है। भारतीय चिंतन-परंपरा में अपने कर्तृत्व का विगलन करके उसे ईश्वरार्पण (सब-कुछ ईश्वर ही करता है) की जो वृत्ति देखने को मिलती है, उसके मूल में शायद अहंकार-निरसन की भावना ही रही हो। कृतियों में जरा भी अहंभावना न आ पाए, इस उदात्तभावना ने संभवतः उसे पनपाया हो। मैं भारतवासियों को लक्ष्य कर विशेष रूप से कहना चाहता हूं कि वे अहंकार-वर्जन के साथ-साथ अपनी असीम आत्म-शक्ति का उत्कर्ष भी न भूलें। वे स्मरण रखें कि वे जड़ और मिट्टी नहीं है, चेतन हैं। इसलिए उन्हें अपने बल, वीर्य, पराक्रम और पुरुषार्थ को जाग्रत करके नैतिक एवं चारित्रिक अधःपतन से स्वयं को उबारना है। असंयम के युग-प्रवाह में न बहकर प्रतिस्रोत में गति करनी है, अपनी जीवनशैली संयममय बनानी है। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि वे बहुत-कुछ करने की क्षमता रखते हैं, बशर्ते कि अपनी सुप्त आत्मशक्तियां यथावत पहचानें, जाग्रत करें और उन्हें सत्प्रयुक्त करें। हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन, पटना ७ जनवरी १९५९
संयम जीवन का सौंदर्य है
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