SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संयम की उपासना करें इन सारे उपासना-सूत्रों का आशय है, आत्मा का सान्निध्य प्राप्त करना। आत्मा सबमें है, फिर भी आत्मवान बहुत थोड़े होते हैं। जिसमें संयम नहीं होता, वह आत्मवान नहीं होता। मनुष्य के जीवन का प्रधान अंग आत्मा है, फिर भी उसके समीप रहने का अवसर बहुत ही कम मिलता है। बहुत करके वह बाहरी प्रदेशों में रहता है। ये इंद्रियां सदा खुली रहनेवाली खिड़कियां हैं। इनमें से मन बाहर की ओर झांकता रहता है। आत्मा में क्या है, कितना है, कैसा है, इसका उसे पता ही नहीं। हो भी तो कैसे? जो जिसके समीप ही नहीं आता, वह उसे कैसे पहचाने ? अपनी पहचान संभवतः सबसे कठिन है। उसका साधन है-संयम। व्रत और क्या है? संयम की उपासना ही तो व्रत है। जिसमें संयम नहीं, उसकी अर्चना छलना हो जाती है। छलना इसलिए कि वह पूजा करता है भगवान की और कार्य करता है उससे दूर रहने का। वह पूजा के समय तो भगवान में लीन हो जाता है और उससे उठते ही ऐसा कार्य करता है, जिसका आचरण कर कोई आदमी भगवान नहीं बन सकता। व्यक्ति भगवान के आदेशों का तो खुला उल्लंघन करे और भगवान की गुण-गाथा गाकर उन्हें प्रसन्न करना चाहे-यह कैसी समझ है! पुत्र पिता की गुणगाथा गाता है या नहीं गाता है, यह कोई महत्त्वपूर्ण प्रश्न नहीं है। महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि वह पिता की बात मानता है या नहीं। पिता का कहा नहीं करता तो गुणगाथा गाने मात्र से क्या होगा? और उसका कहा करता है तो गुणगाथा न गाकर भी वह सफल है। सफलता की कसौटी भक्ति ही नहीं है। जब तक जीवन में संयम विकसित नहीं होता, तब तक कोई व्यक्ति भक्त बनता ही नहीं। अपेक्षा यह है कि आदमी संयमी बने। भक्ति, ज्ञान आदि उसके प्रेरक हैं। प्रेरणास्रोत के बारे में कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। मूल बात है प्रेर्य तत्त्व की। वह संयम है। लोगों ने भक्ति या प्रेरक तत्त्व इस रूप में पकड़े हैं कि उनमें प्रेर्य तत्त्व दृष्टि से ओझल-सा हो गया है। मैं चाहता हूं कि लोग आत्म-निरीक्षण करें, चिंतन करें और प्रेर्य तत्त्व को प्रेरक तत्त्वों में स्थान दें। उपासना के सर्व-सामान्य सूत्र - --३२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy