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१३४ : सबसे बड़ी क्रांति
युवकों को मैं शक्ति का प्रतीक मानता हूं। उनमें जोश बहुत होता है। सुधार और क्रांति करना भी वे चाहते हैं। इसके लिए वे जब-तब आंदोलन भी करते रहते हैं, लेकिन कैसा आश्चर्य है कि अपना सुधार भूल जाते हैं, अपने निर्माण से मुंह मोड़ लेते हैं। मैं उन्हीं से पूछना चाहता हूं कि ऐसी स्थिति में वे जो सुधार करना चाहते हैं, वह वस्तुतः सुधार है या बिगाड़, वे जिस क्रांति की बात करते हैं, वह सचमुच में क्रांति है या भ्रांति। युवक अपनी अंतरात्मा से उत्तर दें।
युवक यह बात गंभीरता से समझें कि प्राचीनता नष्ट कर देना ही सुधार का आदर्श नहीं है और न नव्य को संगठित रूप देना ही क्रांति है। प्राचीन बात मात्र इसलिए विकृत और त्याज्य नहीं है कि वह प्राचीन है । प्राचीन होते हुए भी यदि वह मानवता के निर्माण और सुसंस्कृति की संरचना में उपयोगी है तो उसे नष्ट करना या ऐसी आवाज उठाना न केवल अपनी अज्ञानता का परिचायक है, अपितु सुधार पर कुठाराघात करना भी है। इसी प्रकार नव्य बात सिर्फ इसलिए अच्छी नहीं है कि वह आज के समय की है। नव्य होने के बावजूद यदि उसका लक्ष्य गलत है, आध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिकूल है तो वह वास्तविक क्रांति नहीं है, बल्कि कहना चाहिए कि क्रांति के नाम पर असंयम और असदाचार को पोषण देना है; और जब वास्तविक क्रांति नहीं है, इसलिए सुधार भी नहीं है। युवकों को यह ख्याल रहना चाहिए कि प्राचीन तत्त्वों में भी हमें बहुत-सी उच्च आदर्शों की बातें प्राप्त होती हैं। मात्र प्राचीन होने के बहाने वे बातें उपेक्षित नहीं की जा सकतीं।
वर्तमान में सुधार की जो चर्चा है, उसके दो रूप हमारे सामने हैं। प्रथम का दृष्टिकोण विध्वंसात्मक है। वह सर्वत्र विनाश के बीज बोना चाहता है। इसके ठीक विपरीत दूसरे का दृष्टिकोण सृजनात्मक सबसे बड़ी क्रांति
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