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१३३ : स्वधर्म उज्ज्वल बनाएं
आज दुनिया स्वधर्म विस्मृत कर परधर्म की चिंता में अधिक उलझ रही है। स्वयं का आचरण तो सम्यक नहीं और दूसरों के उत्थान की चिंता ! यह कितनी अनुचित और लज्जास्पद स्थिति है ! यही तो आज के युग के पतनोन्मुखी बनने का मूलभूत कारण है। धर्म का मूल अपना चरित्र उज्ज्वल बनाना ही है, स्वजीवन और स्वधर्म सुसंस्कारित और उन्नत बनाना ही है। इससे आत्मलाभ ही नहीं, अपितु जाति, समाज और पूरे राष्ट्र का कल्याण भी है। व्यक्ति-व्यक्ति के योग से समाज की सृष्टि होती है तथा समाज में राष्ट्र की मूल सत्ता केंद्रित है। इस स्थिति में यदि व्यक्ति-व्यक्ति अपना स्वधर्म / चरित्र उज्ज्वल और उन्नत बनाने की दिशा में सजग बन जाए तो लोककल्याण का बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित हो सकता है, समाज का अभ्युदय घटित हो सकता है, राष्ट्र में जाग्रति की लहर पैदा हो सकती है; और ऐसी स्थिति में वह राष्ट्र अन्यान्य राष्ट्रों के लिए जागरण और विकास की प्रेरणा बन सकता है।
मैं देख रहा हूं कि आज अछूत कहलानेवाली जातियां अपना विकास करने के लिए जागरूक बन रही हैं। वे मद्यपान, मांस भक्षण आदि दुर्व्यसन एवं असदाचार तजकर सात्त्विक जीवन जीने की दिशा में प्रयाण कर रही हैं, अपनी जीवन-शैली परिष्कृत एवं संस्कारित कर रही हैं। पर कैसी बात है कि इसी के ठीक विपरीत उच्च और सभ्य कहलानेवाली जातियों के लोग सभ्यता और शिष्टाचार के नाम पर मांस और मद्य का अपने जीवन में अवांछित प्रवेश करवा रहे हैं, विभिन्न प्रकार की असत्प्रवृत्तियों से अपना जीवन पतन के गर्त में ढकेल रहे हैं! कुछ लोग तो ऐसे हैं, जिनका जीवन नाना प्रकार के दुर्व्यसनों का अड्डा बना हुआ है, तथापि वे अपने-आपको आर्य कहलाने का गौरव रखते हैं। मुझे उनकी बुद्धि पर तरस आता है। मेरी दृष्टि में
स्वधर्म उज्ज्वल बनाएं
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