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अब विजय और विजया ने अपने भावी जीवन पर गंभीरतापूर्वक चिंतन करते हुए निर्णय किया कि जब तक हमारी यह प्रतिज्ञा गुप्त रहेगी, तब तक हम दोनों भाई-बहिन की तरह गृहस्थावस्था में ही रहेंगे, किंत किसी निमित्त से जैसे ही यह प्रतिज्ञा प्रकाशित हो जाएगी, हम दीक्षा ग्रहण कर लेंगे।
वर्षों तक उनकी यह प्रतिज्ञा गुप्त रही। अपने निश्चय के अनुसार वे भाई-बहिन की तरह रहे। एक शय्या पर सोकर भी उन्होंने अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया। कूप-मंडूक कैसे जाने कि समुद्र कूप से बड़ा है, बहुत अधिक बड़ा है! जन-सामान्य इस बात पर कैसे विश्वास करे कि एक शय्या पर रहकर भी अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है! भले कोई विश्वास करे या न करे पर यथार्थ यथार्थ है। हां, यह कार्य है असाधारण। कदाचित भंवर में नौका न डूबना, अग्नि पर मक्खन न पिघलना, ढाल में पानी न बहना आदि बातें सहज हो सकती हैं, पर एक शय्या पर रहकर अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करना महादुष्कर है। विजय-विजया ने यह महादुष्कर कार्य किया। कहना चाहिए कि उन्होंने कज्जल की कोठड़ी में रहकर भी कालिमा न लगानेवाली उक्ति चरितार्थ कर दी।
साधु-साध्वियां पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, पर गृहस्थ अवस्था में और वह भी एक शय्या पर रहकर विजय-विजया ने अखंड ब्रह्मचर्य पालन करने का जो उदाहरण पेश किया, उससे एक अपेक्षा से वे साधु-साध्वियों से भी अधिक साधुवाद के पात्र बन गए। उपाध्याय विनयविजयजी ने कहा है
अदधुः केचन शीलमुदारं, गृहिणोऽपि परिहृतपरदारम्। यश इह संप्रत्यपि शुचि तेषां, विलसति फलिताऽफलसहकारम्॥
विजय-विजया की गृहस्थ अवस्था की यात्रा सानंद चल रही थी। चलते-चलते उसमें एकदम मोड़ आ गया। किसी प्रसंग में केवली भगवान ने उनकी सारी स्थिति प्रकट कर दी। प्रकट होते ही अपने पूर्व निर्णय के अनुसार उन्होंने अदम्य आत्म-साहस के साथ संयम-जीवन अंगीकार कर लिया। दीक्षित होने के पश्चात उन्होंने अपनी आत्मा को विविध प्रकार की तपस्या में झोंक दिया। अंत में सर्व कर्मों का क्षय कर वे मुक्त बन गए।
संकल्प-चेतना जगाएं
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