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________________ शुक्लपक्ष में अब्रह्म-सेवन न करने का संकल्प ग्रहण कर लिया। दोनों एक-दूसरे से सर्वथा अपरिचित। पर कैसा संयोग मिला कि कुछ ही दिनों पश्चात दोनों की परस्पर शादी हो गई। उस समय शुक्लपक्ष चल रहा था। विवाह की प्रथम रात्रि में जब दोनों के मिलने का प्रसंग उपस्थित हुआ, विजया ने सोचा कि आखिर कब तक छिपाऊंगी, किससे छिपाऊंगी। अच्छा है, स्पष्ट ही कह दूं, ताकि दाम्पत्य जीवन में किसी प्रकार का तनाव न आए, कटुता न पैदा हो। साहस कर वह बोली-'प्राणेश! मैंने शुक्लपक्ष में ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार कर रखा है; और शुक्लपक्ष के अब मात्र तीन दिन ही अवशेष हैं।' सुनते ही विजय के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। उस पर चिंता की स्पष्ट रेखाएं उभर आईं। देखकर विजया के मन में विचार आया कि मेरे पति चेहरे-मेहरे और हाव-भाव से इतने विलासी तो नहीं दिख रहे हैं, फिर भी न जाने क्यों इनके लिए तीन दिन इतने असह्य हो गए। उसने उसी भावधारा में विजय से कहा- हृदयेश! तीन ही दिनों की तो बात है, आप इतने उदास और चिंतित क्यों हो रहे हैं?' विजय ने लंबा निःश्वास छोड़ते हुए कहा-'प्रश्न तीन दिन का नहीं है, पूरे जीवन का है।' विजया चौंकी-'यह कैसे?' विजय बोला-'तुम्हारी तरह मैंने भी कृष्णपक्ष में ब्रह्मचर्य-व्रत स्वीकार कर रखा है। इसलिए इस जीवन में हम पति-पत्नी के रूप में नहीं रह सकते।' इस बार विजया को गहरा झटका लगा। वह हतप्रभ हो गई, पर शीघ्र ही संभाली। उसने आत्म-निवेदन के स्वर में विजय से कहा- पतिदेव! आप सहर्ष दूसरी शादी कर लें। मैं आर्य नारी की आदर्श परंपरा का निर्वहन करती हुई आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूंगी। अपना लिया हुआ व्रत किंचित भी खंडित नहीं होने दूंगी। अपनी बहिन के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहती हुई आपके चरणों की सेवा करती रहूंगी।' विजया को सुन विजय ने मन-ही-मन कहा-कौन कहता है कि यह अबला है! यह तो सौत की असह्य पीड़ा भी झेलने के लिए सहर्ष तैयार है और अपनी प्रतिज्ञा/संकल्प में चट्टान की तरह दृढ़ है।. इसके साथ ही विजय का शौर्य जाग उठा। उसने विजया से कहा-'प्रिये! तुम आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करो और मैं दूसरा विवाह रचाऊं, यह कदापि नहीं हो सकता। मैं इतना कमजोर नहीं हूं। मैं भी तुम्हारी तरह आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा। अपना स्वीकृत व्रत अखंड रूप में निभाऊंगा।' -- ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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