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१३२ : संकल्प - चेतना जगाएं
आत्महितगवेषी साधक संकल्प करता है-अबंभं परियाणामि बंभ उवसंपज्जामि-मैं अब्रह्मचर्य का परित्याग करता हूं और ब्रह्मचर्य को अंगीकार करता हूं, पर आजीवन पूर्ण रूप से अब्रह्मचर्य का परित्याग कोई-कोई विशेष सामर्थ्यवान व्यक्ति ही कर सकता है । सर्व-स् - सामान्य के लिए यह संभाव्य और व्यावहारिक बात नहीं है। उनके लिए तो थूलाओ अबंभाओ वेरमणं की बात है। अर्थात वह स्थूल अब्रह्मचर्य छोड़े। अब्रह्मचर्य सेवन की सीमा करे । महीने के तीस ही दिन विकार में न गंवाए। स्वदार-संतोषी बने, स्वपति - संतोषी बने । यथाशक्ति ब्रह्मचर्य - पालन करने का संकल्प करे ।
गहराई से देखा जाए तो विचारों की दृढ़ता एवं निर्णय की स्थिरता के लिए संकल्प अत्यंत आवश्यक है। संकल्प की शक्ति अचिंत्य होती है। कभी-कभी तो एक छोटा-सा संकल्प ही व्यक्ति में अद्भुत आत्मशक्ति जगानेवाला सिद्ध हो जाता है। विजय-विजया का ऐतिहासिक उदाहरण यही तथ्य उजागर करता है ।
आचार्य ने प्रवचन किया। प्रवचन का मुख्य प्रतिपाद्य था - ब्रह्मचर्य। प्रतिपादन / विश्लेषण इतना मार्मिक और तलस्पर्शी था कि श्रोताओं के हृदय को छू गया। अब्रह्मचर्य के कटुक विपाक का चित्रण इतना जीवंत था कि लोगों के भावुक दिल दहल उठे। परिणामतः यथाशक्ति अब्रह्मचर्य के परित्याग की झड़ी-सी लग गई। किसी ने जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प लिया तो किसी ने एक-दो वर्ष का। किसी ने स्वदार - संतोष व्रत स्वीकार किया तो किसी ने अब्रह्मचर्य सेवन की सीमा की ।
परिषद में गुरुकुल का छात्र विजय भी तो उपस्थित था। आचार्यवर के उपदेश से प्रेरित होकर उसने जीवनपर्यंत कृष्णपक्ष मैं अब्रह्म सेवन का परित्याग कर दिया। इसी प्रकार विजया नामक छात्रा ने जीवन-भर
संकल्प - चेतना जगाएं
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