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अत्यंत संक्षिप्त-सा उत्तर है-अहिंसा की साधना से । अहिंसा आध्यात्मिक जगत का सर्वोच्च तत्त्व है।
अहिंसा की साधना से सारे वैमनस्य मिट सकते हैं, पर कायरता अहिंसा नहीं है। वह तो कमजोरी है। अहिंसा वीरों का धर्म है, किंतु किसी को न मारना ही अहिंसा नहीं है, अपितु मरने से न घबराना भी अहिंसा है। भय हिंसा है। अहिंसक को निर्भय होना चाहिए।
मैत्री अहिंसा का ही पर्यायावाची नाम है। दूसरे शब्दों में मैत्री अहिंसा है। मैत्री दो व्यक्ति से संबद्ध होती है। अहिंसा दो के बिना भी हो सकती है। लोक-जीवन में दोस्तों के साथ मित्रता रखना ही मैत्री का रूप रह गया है। अपेक्षा है उसका प्रयोग विरोधियों के साथ हो । विशुद्ध मैत्री के क्षेत्र में विरोधी - अविरोधी का प्रश्न ही नहीं होना चाहिए। इससे अपना अहित होनेवाला नहीं है। शास्त्रों में कहा है- 'दो साधकों में कदाच परस्पर कटुता हो जाए तो उसे शांत किए बिना वे भोजन - पानी न लें। अब एक साधक अपनी गलती स्वीकार करता है, पर दूसरा आग्रहवश या अन्य कारणों से स्वीकार नहीं करता। ऐसी स्थिति में भी गलती स्वीकार करनेवाले को दूसरे से खमत - खामणा कर लेनी चाहिए। दूसरा खमत- खामणा करे या न करे, यह उसकी इच्छा पर निर्भर है, पर अपनी ओर से खमत - खामणा करना अपनी साधना है । '
सामान्यतः लोग क्षमा मांगनेवाले को नीचा व पराजित मानते हैं। क्षमा देनेवाला अहंकार करता है । इसलिए हमारे यहां खमत-खामणा शब्द है। इसका अर्थ है- मैं स्वयं क्षमा मांगता हूं और तुम्हें क्षमा देता हूं। इसमें ऊंच-नीच का प्रश्न नहीं रहता । वस्तुतः अपना दोष स्वीकार करना अहिंसा की साधना है ।
अहिंसा की शक्ति अणुबम की शक्ति से भी बढ़कर है। अहिंसकों के सामने हिंसकों की हिंसक शक्ति स्वतः नष्ट हो जाती है । निरपराध को न सताना अहिंसा है, परंतु उसका सजीव रूप वहां है, जहां अपराधी / विरोधी को भी न सताया जाए। अपेक्षा है, अहिंसा की अनुपम शक्ति से जन- जन परिचित हो और वह उसे शांति के अमोघ साधन के रूप में अधिकाधिक जीवन का अंग बनाए ।
शांति : उत्स और साधन
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