________________
१३० : शांति : उत्स और साधन
संसार संसार है। इसमें अच्छाई और बुराई दोनों रहती हैं। जब तक संसार में क्रोध, मान, मद आदि के रूप में बुराइयां रहेंगी, तब तक पूर्ण शांति का वातावरण निर्मित नहीं हो सकता।
शांति के लिए विज्ञान ने नए-नए आविष्कार किए, सुख-सुविधा के अनेकानेक साधन दिए, फिर भी शांति की प्यास नहीं बुझी, बल्कि आज तो वह अधिक तीव्र हो उठी है। कारण स्पष्ट है। मूल में भूल है। शांति का स्रोत आत्मा है। उसका प्रवाह भौतिक साधनों में कैसे मिलेगा? मकान में पड़ी वस्तु बाहर खोजने पर कैसे मिलेगी? सबसे पहले दृष्टि की यह भ्रांति मिटानी चाहिए।
जीवन का लक्ष्य है-ज्ञान, श्रद्धा, शक्ति और सुख की प्राप्ति। मनुष्य अपना मूल लक्ष्य भूल गया है। ज्ञान प्राणी के सिवाय कहीं नहीं है। इंजन चलता है, पर उसमें न ज्ञान है और न अनुभूति। दर्शनविश्वास का विकास अधिकतया मनुष्य में हो सकता है। शक्ति प्राणी में भी होती है और अप्राणी-पुद्गल आदि में भी। मनुष्य में आत्मा से परमात्मा बनने की शक्ति है। सुख हमारा अविभाज्य गुण है। आज मनुष्य ज्ञान, श्रद्धा और शक्ति को भूल रहा है। सुख को भी भूल रहा है।
वैज्ञानिकों ने जड़वाद पर नाना अन्वेषण किए, लेकिन आत्म-तत्त्व अछूता ही रहा। महर्षियों ने तपःपूत साधना से आत्मतत्त्व का अन्वेषण किया। उन्होंने कहा-'आत्मा भीतर है और वह शाश्वत है। जो बाहर है, वही भीतर नहीं है। भीतर दूसरा तत्त्व है। हम खाना, पीना, बोलना आदि जो बाह्य क्रियाएं करते हैं, उसकी प्रेरणा हमें अंदर से मिलती है। वही प्रेरक शक्ति आत्मा है।' अहिंसा : सर्वोच्च तत्त्व
प्रश्न पैदा होता है कि आत्म-शक्ति का विकास कैसे हो। इसका
.३०८
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org