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________________ संसार नित्य है या अनित्य, यह प्रश्न गौतम बुद्ध ने अव्याकृत कहकर टाल दिया, पर भगवान महावीर ने कहा-'संसार नित्यानित्य है। वह सदा था, है और सदा रहेगा भी। जो रूप आगे था, वह आज नहीं है। आज जो है, वह आगे नहीं रहेगा।' यही जैन-दर्शन का पर्यायवाद है। पर्याय-अवस्था प्रतिक्षण बदलती है। इसी परिवर्तन में एक तत्त्व ऐसा भी है, जो ध्रुव है। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य में अनेक रूपपरिवर्तन ही होते रहते हैं, पर मनुष्य वही है। वस्तु का अनंतधर्मात्मक ज्ञान और उसका अनेक रूपों से प्रतिपादन ही स्याद्वाद है। आजकल का पारस्परिक दुराग्रह एक-दूसरे का दृष्टिकोण न समझने का परिणाम है। कहनेवाला कुछ कहना चाहता है और लेनेवाला उसे किसी दूसरे अर्थ में ही लेता है-यही तो झगड़े की जड़ है। जिस दृष्टिकोण से व्याख्या है, उसे उसी रूप से ग्रहण करना ही जैन-दर्शन का नयवाद या आपेक्षावाद है। किसी ने कहा कि घड़ा है, पर जैन-दर्शन कहता है कि 'घड़ा है' यह जितना सत्य है, उतना ही सत्य 'घड़ा नहीं है' यह कथन भी है। स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से घड़ा है और पर द्रव्य की अपेक्षा से वह नहीं भी है। जिस समय वस्तु की 'अस्ति' है, उसी समय 'नास्ति' भी है। दोनों एक साथ हम कह नहीं सकते, अतः 'अवक्तव्य' है। संसार के प्राणी किसी एक ईश्वर के संचालित यंत्र नहीं हैं। एक ईश्वर के नियंत्रण में कर्म का क्या महत्त्व रहेगा? भगवान महावीर ने कहा-सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति-अच्छे कार्यों के फल भी अच्छे होते हैं। जैन-दर्शन कर्मवादी और आत्मवादी दर्शन है। वह पुरुषार्थ में अधिक विश्वास रखता है। पुरुषार्थ का अंतिम निष्कर्ष ही भाग्य है। जैन-दर्शन का मौलिक स्वरूप - ३०७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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