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१२९ : जैन-दर्शन का मौलिक स्वरूप
जैन 'जिन' शब्द से बनता है। जिन का अर्थ है-जीतनेवालावीतरागभयक्रोधः। जिन/वीतराग के द्वारा प्रतिपादित मार्ग को स्वीकार करनेवाला या उस पर श्रद्धा रखनेवाला ही जैन है। जैन-दर्शन पुनर्जन्म, आत्मा, ईश्वर, कर्म-फल, मुक्ति और स्वर्ग-नरक में विश्वास करता है। उसकी मान्यता है कि जब तक आत्मा कर्म और शरीर के बंधन से बंधी है, तब तक वह बद्धात्मा है और इनसे मुक्त होकर परमात्मा है।
आत्मा स्वतंत्र है। उसका पृथक अस्तित्व है। वह एक नहीं, अनेक है। आत्मा स्वयं की पुरुषार्थ-साधना से परमात्मा बन सकती है। व्रतप्रतिपालन, तपस्या और त्याग ही परमात्म-पद की साधना है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की आराधना ही मोक्ष की आराधना है। सबके प्रति आत्म-भाव ही जैन-दर्शन की अहिंसा है। विश्व-मैत्री-प्राणिमात्र के प्रति आत्मोपम्य दृष्टि अहिंसा का ही एक अंग है। सत्य जैसे अनंत और अगम्य है, वैसे ही वह जीवन-व्यवहार्य भी है। अस्तेय व्यक्ति का विकास है। ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह मानवीय भूमिका के दो द्वार-स्तंभ हैं। स्वयं को त्याग की कसौटी पर कसना ही आत्मोन्नति का मार्ग है।
स्याद्वाद, अपेक्षावाद, नयवाद या अनेकांतवाद जैन-दर्शन की निरूपण-पद्धति है। अनेकांत-दृष्टि का अर्थ है-वस्तु के अनेक धर्मों, स्वभावों, आकारों-प्रत्याकारों का सापेक्ष दृष्टि से विवेचन। वस्तु के अनेक धर्मों को हम एक साथ कैसे कहेंगे? मकान किसी दृष्टि से ठंडा भी है, किसी दृष्टि से गरम भी है। वह ऊंचा भी है, सादा भी है, रंगीन भी है। उसके विभिन्न रूप हैं। हम सब रूप एक साथ नहीं बता सकते। अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म का किसी एक सापेक्ष दृष्टि से वर्णन ही अनेकांतवाद है।
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- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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