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________________ १३१ : श्रमण संस्कृति का संदेश जैन-संस्कृति आत्म-उत्सर्ग की संस्कृति है। बाह्य स्थितियों में जयपराजय की अनवरत शृंखला चलती है। वहां पराजय का अंत नहीं होता। उसका पर्यवसान आत्मविजय में होता है। वह निर्द्वद्व स्थिति है। जैनविचारधारा की बहुमूल्य देन है-संयम। सुख का वियोग मत करो, दुःख का संयोग मत करो-सबके प्रति संयम करो। 'सुख दो और दुःख मिटाओ' की भावना में आत्म-विजय का भाव नहीं होता। दुःख मिटाने की वृत्ति और शोषण, उत्पीड़न तथा अपहरण दोनों साथ-साथ चलते हैं। इधर शोषण और उधर दुःख मिटाने की वृत्ति-यह उच्च संस्कृति नहीं है। सुख का वियोग और दुःख का संयोग मत करो यह भावना आत्म-विजय का प्रतीक है। सुख का वियोग किए बिना शोषण नहीं होता, अधिकारों का हरण और द्वंद्व नहीं होता। सुख मत लूटो और दुःख मत दो-इस उदात्त भावना में आत्मविजय का जो स्वर है, वह तो है ही, उसके अतिरिक्त जगत की नैसर्गिक स्वतंत्रता का भी महान निर्देश है। प्राणिमात्र अपने अधिकारों में रमणशील और स्वतंत्र है, यही उसकी सहज सुख की स्थिति है। सामाजिक सुख-सुविधा के लिए इसकी उपेक्षा की जाती है, किंतु उस उपेक्षा को शाश्वत सत्य समझना भूल से परे नहीं होगा। दस प्रकार का संयम, दस प्रकार का संवर और दस प्रकार का विरमण यह सब स्वात्मोन्मुखी वृत्ति है या निवृत्ति हैं या है निवृत्तिसंवलित प्रवृत्ति। ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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