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१२८ : सबसे बड़ा धर्म क्या है
जैन-धर्म का मंतव्य
जैन-धर्म का मंतव्य अनेकांत है। अनेकांत का अर्थ है-सापेक्ष दृष्टि। प्रत्येक व्यक्ति के अपने स्वतंत्र विचार हैं। अपने विचारों के प्रतिकूल सब गलत और स्वयं के विचार ही सत्य यह हो नहीं सकता। किसी एक दृष्टि से अपने विचार सही हैं तो किसी दूसरी दृष्टि से दूसरों के विचार भी तो सही हो सकते हैं। आग्रहहीनता ही सबसे बड़ा धर्म है। आग्रही एक बात पकड़ बैठेगा, अपनी कही बात सिद्ध करने के लिए अपने विचारों के अनुकूल तर्क भी घसीटेगा। अनाग्रही तर्क और युक्ति वहां ले जाएगा, जहां से सत्य खोजा जा सके। जैसी करनी वैसी भरनी
भारत की दार्शनिक संपत्ति बड़ी विशाल रही है। यहां लोगों का दिमाग खुला और हृदय अहिंसा से आप्लुत रहा है। कोई भी अपना या पराया विचार सांचे में बिठाना भारतीय चिंतन का सुपरिणाम है। जैनदर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है। जो जैसा पुरुषार्थ करेगा, वह वैसा ही फल पाएगा यह जैन-दर्शन की पुष्ट मान्यता है। औरों की कृपा पर जीवित रहना ठीक नहीं है। पुरुषार्थहीन पर कृपा कुछ कर भी तो नहीं सकती। पारगामी कौन
भाषावाद और जातिवाद में जैन-धर्म विश्वास नहीं करता। उसके सिद्धांतानुसार एक गुणयुक्त चांडाल भी पूज्य है और एक गुणशून्य ब्राह्मण भी अवंद्य। केवल विद्या मोक्षदायिनी नहीं है। एक बड़े-से-बड़ा ज्ञानी आचारभ्रष्ट हो सकता है, पर एक शुद्धाचारी ज्ञानभ्रष्ट नहीं हो सकता। इसलिए-विज्जाचरणपारगाः-आचारसंपन्न ज्ञानी ही पारगामी है।
धर्म और दर्शन दोनों आज पुस्तकारूढ़ तो हैं, पर वह जीवन-दर्शन नहीं है। धर्म को पुस्तकों से निकालकर जीवन में लाना होगा। • ३०४
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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