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१२७ : संयम और अनुशासन की समृद्धि का
संकल्प करें
१५ अगस्त नए युग का नया राष्ट्रीय त्योहार है। इसके साथ स्वाधीनता को स्मृति जुड़ी हुई है। मनुष्य सदा आनंद और उल्लास चाहता है। स्वाधीनता सबसे बड़ा आनंद और सबसे बड़ा उल्लास है, किंतु अधिकतर लोग स्वाधीनता की समृद्धि के लिए चाहते हैं कि उनकी समृद्धि के विकास में दूसरे लोग बाधक न बनें। इसलिए वे स्वाधीन होना चाहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि स्वाधीनता मिली है, पर समृद्धि नहीं बढ़ी। बढ़ी नहीं है, यह कहना शायद अत्युक्ति है। हां, जितनी कल्पना थी, उतनी शायद नहीं बढ़ी।
स्वाधीनता का फल केवल समृद्धि का विकास नहीं है, चरित्रविकास भी उसका ही फलित है। भारत किसी समय अर्थ-संपदा से जितना समृद्ध था, उससे कहीं अधिक चरित्र-संपदा से संपन्न था। दूसरे देशों के लोग चरित्र की शिक्षा लेने यहां आते थे, पर भारत का यह गौरव आज सुरक्षित नहीं रहा है। विदेशों की यात्रा करनेवाले बहुत-से व्यक्तियों का ऐसा अनुभव है कि अनेक क्षेत्रों में भारतीय समाज का चरित्र अन्यान्य राष्ट्रों की तुलना में नीचे गिर रहा है। भारतीय समाज को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। मैं नहीं समझता कि जब भारतीय जनता ने राजनीति एवं अर्थनीति के क्षेत्र में विदेशों का अनुसरण किया है, तब चरित्र एवं आचरण के क्षेत्र में क्यों नहीं। मुझे ऐसा प्रतिभासित होता है कि इस क्षेत्र में सबसे बड़ी कठिनाई या बाधा संस्कारों और विचारों के असामंजस्य की है। भारतीय लोगों के संस्कार पुराने हैं और विचार नए। यह असामंजस्य मिटाए बिना समस्या समाहित नहीं हो सकती।
पूरे वर्ष का सिंहावलोकन कर देखें कि कहां क्या हुआ है। केरल में जो हुआ, उत्तरप्रदेश में जो हो रहा है, वह सुखद नहीं है। ऐसा लगता
-- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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