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१२६ : विकार का परित्याग मोक्ष का हेतु है
यौवन एक रत्न है, जो कि भोग-विलास करने के लिए नहीं है। कुछ व्यक्ति कहते हैं, भोग तो प्रकृति है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि क्या भगवान अरिष्टनेमि और कुमारी मल्लि विकृति में थे, जिन्होंने कि अपनी जवानी का उपयोग आध्यात्मिक उत्कर्ष में लगाया। मेरी दृष्टि में ऐसा सोचना और कहना व्यक्ति के मस्तिष्क की अपरिपक्वता है, भयंकर भूल है।
. हम प्राचीन उदाहरण ही क्यों लें, आज भी तो बहुत उदाहरण हैं। ये साधु-साध्वियां, जो इस भौतिकता के युग में अपना मन और इंद्रियां स्वस्थ रखते हैं, क्या विकृति में हैं? नहीं, विकृति में बिलकुल नहीं हैं, वे अपनी प्रकृति में हैं। यह तो अनादि माया-मोह का आवरण है, जिसने कि लोगों को दिग्मूढ़ बना रखा है।
जिस-किसी ने अपना दृष्टि-संयम, मानसिक संतुलन और खाद्यसंयम खो दिया, आंशिक रूप में वह ब्रह्मचर्य की साधना से स्खलित हो चुका। जिस प्रकार मकान में दरार पड़ जाने पर यदि उसकी मरम्मत का ख्याल नहीं किया जाता है तो वह गिर जाता है, उसी प्रकार यदि कोई अपने मन, वचन और काया पर अंकुश न रख सके तो वह ब्रह्मचर्य की साधना में सफल नहीं हो सकता।
चक्षु द्वारा रूप का साक्षात करना बुरा नहीं, बुरा तो उसके देखने में जो विकार है, वह है। बिल्ली उन्हीं दांतों से अपने बच्चे को पकड़ती है और उन्हीं दांतों से चूहे को भी, पर बच्चे को पकड़ते समय उसकी यह दृष्टि रहती है कि कहीं इसके खरोंच भी न आए और चूहे को पकड़ने पर यह दृष्टि रहती है कि कहीं यह छूट न जाए। यह आंख का अंतर नहीं, अपितु मानसिक विकार का अंतर है।।
व्यक्ति जिस दृष्टि से अपनी माता को देखता है, उसी दृष्टि से .३००
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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