________________
१२५ : मैत्री के साधन पुष्ट हों*
मैत्री जीवन के परिष्कार का पहला और जीवन की ऊंचाई का चरम सोपान है।
जो व्यक्ति, समाज या संस्थान मैत्री का प्रसार करते हैं, शत्रु-भाव की परिसमाप्ति कर अपनी मित्रता से दूसरे का हृदय आप्लावित करते हैं, वे सचमुच ही महान साध्य की साधना में संलग्न हैं। ऐसे व्यक्तियों को मैं अपना सक्रिय सहयोगी मानता हूं।
शत्रुता-भाव का शल्य जो पल-पल चुभता रहता है, वह दूसरों की अपेक्षा अपना अधिक अनिष्ट करता है।
शत्रुता का हेतु स्वार्थों का संघर्ष और अविश्वास है। अपने वैयक्तिक या सामाजिक स्वार्थ का विस्तार दूसरों के स्वार्थ से टकरा जाता है और मैत्री नष्ट हो जाती है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति संदेहशील रहता है और इसी लिए रहता है कि कहीं कोई मेरा स्वत्व हड़प न ले। यह शत्रुता की उत्पत्ति का क्रम है।
सामुदायिक जीवन की उपयोगिता के लिए कुछ काल्पनिक सीमाएं होती हैं। उन्हें मनुष्य ही बनाता है और उसी के लिए वे संहार का हेतु बन जाती है। प्रांत, राष्ट्र, भाषा और जाति की सीमाएं आज वैसी ही हो रही हैं।
जो व्यक्ति शत्रुता का शिर-दर्द मोल लेना न चाहे, वह अपने स्वार्थ सीमित करे। सीमा की परिभाषा है-दूसरे के स्वार्थों को आघात पहुंचे, वहां तक न जाए। मैत्री जीवन की शांति का सर्वोच्च वरदान है। उसकी उत्पत्ति अभय में और विकास विश्वास में होता है। जो लोग अपने अधिकृत जनता को भयभीत करने की प्रेरणा देते हैं, वे परोक्ष रूप
*मैत्री-दिवस के अवसर पर प्रदत्त संदेश।
.२९८
-- ज्योति जले : मुक्ति मिले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org