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१२३ : श्रद्धा और तर्क
तर्क दुहरा होता है। इसी लिए कहा गया है-ढाले जिसी ढाल और कहे बिसी कहानी। सत्य की दृष्टि यह है कि जहां तर्क काम करे, वहां तर्क से काम लो और जहां तर्क काम न करे, वहां श्रद्धा से काम लो। सारी बातें हेतुगम्य ही हों, यह कभी संभव नहीं है। बहुत-सी बातें अहेतुगम्य भी होती हैं। उनके लिए कोई तर्क काम नहीं करता। अतः उन्हें श्रद्धा से ही जाना जा सकता है। इसी दृष्टि से हम आगमों पर श्रद्धा करते हैं।
प्रश्न हो सकता है कि आगमों में यदि कोई गलत बात हो तो उस पर श्रद्धा कैसे हो सकती है। हमारे पास ऐसा कोई साधन तो नहीं है, जिसके द्वारा हम यह जान सकें कि अमुक बात सर्वज्ञ के द्वारा ही प्रतिपादित है। यह भी तो संभव है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा आगमों में प्रविष्ट करा दी गई हो। इस संदर्भ में पहली बात तो यह है कि आगमों की अधिकतर बातें हमारी समझ में आ सकती हैं और आती भी हैं। शेष रही कुछ अस्पष्ट बातें, जिन्हें हम सुलझा नहीं सके हैं, परंतु हमारे नहीं सुलझा सकने के कारण ही तो वे गलत नहीं हो जातीं। हो सकता है, हम स्वयं ही कहीं गलती पर हों, क्योंकि गलतसही का अंतिम निर्णय तो सर्वज्ञता की भूमिका में ही किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में जब तक हम स्वयं सर्वज्ञता का शिखर न छू लें, तक तक उन्हें गलत कहने का हमें क्या अधिकार हो सकता है? अभी तो हमारा यही कर्तव्य है कि हम उनकी खोज करें। खोज करने के बाद संभव है कि हम उनकी सत्यता स्वयं पहचान लें।
ऐसा बहुत बार हुआ भी है। पहले शास्त्रों की कुछ बातें अस्पष्टसी लगती थीं। अतः कुछ लोगों ने कह दिया कि ये सब तो शास्त्रों को कपोल कल्पनाएं हैं, पर आगे की खोज ने स्वयं प्रमाणित कर दिया
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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