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________________ १२२ : मनोनुशासन का पथ अपनाएं मन चंचल है। वह गतिशील है। वह बलात नहीं रुकेगा। प्रयत्न यह हो कि वह अच्छे कामों में लगा रहे। बुरे कार्यों में न जाए। यही इसकी सफलता है। मन के लिए कवि ने कहा है मनः कुत्रोद्योगः सपदि वद ते गम्यपदवीं, नरे वा नार्यां वा गमनमुभयात्राप्यनुचितम्। यतस्ते क्लीबत्वं प्रतिपदमहो हास्यपदवीः, जनस्तोमे मा गा त्वमनुसर सब्रह्मसरणिम्॥ हे मन! तू पुरुष और स्त्री नहीं है, तू तो नपुंसक है। चंचल मत बन। नर और नारी की ओर मत दौड़। यदि तू गति ही चाहता है तो ब्रह्म की ओर चल। चलता चल। जी-भर चल। बाधाएं चीरता चल। वह तेरा स्थान है, सजातीय है। वह स्त्रीत्व और पुरुषत्व से परे है। मन की प्रवृत्ति विचित्र है। इसकी आज्ञा का पालन पतन का मार्ग है। इस पर अनुशासन करना विजय-पथ है। मन जीवन का आजीवन साथी है। यह अप्रतिबद्धविहारी है। बहुत समझने की बात यह है कि यह किसी का भी विश्वासपात्र नहीं है। यह जब सत्प्रवृत्त रहता है तो कामदुधा धेनु है और यही वैतरणी नदी भी बन जाता है, जब दुष्प्रवृत्त बनता है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक इसे अधिकसे-अधिक सत्प्रवृत्त बनाने का सघन अभ्यास करना चाहिए। इस अभ्यास के सधने के बाद क्रमशः निवृत्ति की दिशा में गति करना चाहिए। . जिसने मन को सही ढंग से जान लिया, पहचान लिया, उसने एक अपेक्षा से सब-कुछ जान लिया, सब-कुछ पहचान लिया। और कुछ भी जानना-पहचानना उसके लिए अवशिष्ट नहीं रहा, पर जानने-पहचानने • २९२ - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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