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१२० : प्रकाश की आवश्यकता
सास ने घर से बाहर जाते हुए बहू से कहा - 'मैं बाहर जा रही हूं। पीछे से अंधेरा घर में प्रवेश न कर जाए इसका ध्यान रखना ।' बहू ने नम्रतापूर्वक सास का निर्देश स्वीकार किया और अपने काम में लग गई।
संध्या हुई। सूर्य अस्ताचल पर पहुंच चुका था। धीरे-धीरे अंधेरे ने अपने पैर फैलाने प्रारंभ किए और बहू के देखते-देखते वह घर में प्रवेश करने लगा। बहू ने अपने हाथ में लाठी उठाई और उसे पीटने लगी, पर वह तो जाने का नाम ही न लेता था। उलटा ज्यादा बढ़ने लगा। बहू ने बहुत जोर लगाया, पर ज्यों-ज्यों रात बीतती गई, त्योंत्यों अंधेरा भी बढ़ता ही गया । आखिर वह पीटते-पीटते हार गई और थककर घर में जाकर एक ओर बैठ गई ।
सास वापस आई और उसने देखा कि घर में अंधेरा-ही-अंधेरा छा रहा है। उसने यह भी देखा कि बहू रुआंसी-सी होकर एक ओर बैठी है। उसने बहू से पूछा - 'बहू! एक ओर क्यों बैठी हो ? और देखो, यह अंधेरा तो घर में आ गया, इसे तुमने घर में कैसे आने दिया ? मैंने इसे घर में आने देने के लिए तुमसे मना किया था । '
बहू थकी-हारी तो थी ही, फिर उसने सास के ये वचन सुने तो वह रोने लगी और रोती- रोती ही बोली- 'आपने मुझे यह क्या काम संभला दिया ! मैं तो इस अंधेरे को पीटते-पीटते हार गई, पर यह तो आखिर घर में आकर जम ही गया । '
सास बहू को पुचकारती हुई बोली- 'बेटी ! रोओ मत। जाओ, दियासलाई लाओ और दीपक जलाओ। अंधेरा अपने-आप भाग जाएगा। उसे भगाने के लिए, उसका नाश करने के लिए उसे पीटने की आवश्यकता नहीं है। बस, प्रकाश की आवश्यकता है।'
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ज्योति जले : मुक्ति मिले
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