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________________ धर्म जातिवाद के बंधन से बंधा हुआ नहीं है । वह सार्वभौम और सार्वजनीन है। वह अर्थ के प्रपंच से भी दूर है, क्योंकि अर्थ तो सुविधा का साधन है और धर्म आत्मशुद्धि का । बलप्रयोग में भी धर्म नहीं है । यदि जबरदस्ती में धर्म होता तो सबसे बड़ी धार्मिक पुलिस बनती। समाज के सभी कार्य धर्म नहीं होते, पर उन पर धर्म का प्रभाव रहता है। समाज में लूट-खसोट, चोरी आदि सभी बातें चलती हैं, पर वे कार्य धर्म नहीं हैं। धर्म तो वह है, जिसके आचरण से जीवन पवित्र बने । युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा - ' कृतयुग में धर्म का क्या प्रभाव था ?' भीष्म पितामह ने उत्तर दिया न वै राज्यं न राजासीत्, न च दण्डो न दाण्डिकः । धर्मेणैव प्रजाः सर्वा, रक्षन्ति स्म परस्परम्॥ --- उस समय न राज्य था और न राजा, न कोई दंड था और न कोई दंड देनेवाला। सारी प्रजा धर्म से ही अनुशासित थी। उसी से परस्पर रक्षा होती थी । लेकिन काल-क्रम से धीरे-धीरे यह सहज धर्माचार या धर्माचरण की स्थिति समाप्त हो गई और जन जीवन अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों से ग्रस्त होता चाला गया। महाभारत में लिखा है कि श्रीकृष्ण के समय में गणराज्य था, पर सदस्य परस्पर लड़ते थे। कई सदस्य तो श्रीकृष्ण की बात तक भी नहीं मानते थे। एक बार नारद आए। श्रीकृष्ण ने अपनी समस्या उनके सामने रखी। नारद ने कहा नान्यत्र बुद्धिक्षान्तिभ्यां नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् । नान्यत्र धनसंत्यागाद्, गणः प्राज्ञेऽवतिष्ठते ॥ गण बुद्धि और क्षांति के बिना नहीं चल सकता, इंद्रियों के निग्रह के बिना नहीं चल सकता, धन-त्याग के बिना नहीं चल सकता। ये सब बातें प्राज्ञ ही कर सकता है। अतः गण प्राज्ञावस्थित होता है। " इससे स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में धर्म के आचरण के बिना सफल नहीं हो सकता । अपेक्षा यही है कि मनुष्य धर्म का तत्त्व समझे और जीवन में उसका आचरण करे । धर्म और समाज Jain Education International For Private & Personal Use Only २८१ • www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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