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________________ जिज्ञासा हो सकती है कि धर्म से आत्मा पवित्र बनती है या पवित्र आत्मा के द्वारा धर्म होता है। नींव मकान का हिस्सा ही है। मकान बन जाने पर नीचे के भाग को नींव और ऊपरी भाग को मकान कहते हैं। वैसे ही अंशतः पवित्र आत्मा को नींव और धर्म को मकान समझना चाहिए। धामिकों की वृत्ति पवित्र होनी चाहिए। मनुस्मृति में भी कहा गया हैन धर्मो धार्मिकैर्विना। धार्मिक के बिना धर्म नहीं हो सकता। धर्म का संबंध समाज से भी है धर्म व्यक्तिगत तत्त्व है। जो व्यक्ति धर्म का आचरण करता है, उसका फल उसे ही मिलेगा। पेट रोटी खानेवाले का भरेगा, दूसरे का नहीं। बहुत-से व्यक्तियों का समूह समाज है। धर्म व्यक्ति-व्यक्ति से संबद्ध होने से समाज से भी संबद्ध हो जाता है। हालांकि व्यक्ति की क्रिया अलग होती है और समाज की क्रिया अलग, तथापि धर्म का संबंध दोनों से है। समाज के लिए मर्यादा आवश्यक होती है। बिना मर्यादा का समाज बिना नाविक की नाव के समान है। मर्यादाविहीन समाज समाज न रहकर समज बन जाता है। पशु आदि के समूह को समज कहते है। समाज और समज में केवल एक मात्रा का अंतर है, पर अर्थ में दिन और रात का-सा अंतर है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने एक स्थान पर कहा है-'एक मात्रा के प्रमाद से सखे! मेरा क्षीरसिंधु क्षार-सिंधु हो गया।' आज समाज की क्या दशा है, यह आपसे अज्ञात नहीं है। यद्यपि सामाजिक सुव्यवस्था की दृष्टि से अनेक प्रकार के नियम बनते हैं, पर आश्चर्य होता है कि उन्हें पालनेवाले कम होते हैं। नियम थोपे जाना भी उचित नहीं है। थोपने से उनका पालन नहीं होता। उसके लिए हृदयपरिवर्तन की आवश्यकता होती है। धर्म का स्वरूप प्रश्न है कि धर्म का स्वरूप क्या है। इस संदर्भ में मैंने एक गीत में लिखा है जातिवाद से अर्थवाद से व्यर्थवाद से दूर। चाटुकारिता बलात्कारिता नहीं उसे मंजूर। धर्म हृदय-परिवर्तन है, फिर क्या निर्धन-धनवान्। लो लाखों अभिनंदन आत्म-विजय का दो वरदान॥ •२८० - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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