________________
मनुष्य हैं, कितनी जातियां हैं। इस दृष्टि से उसे अव्यापक नहीं कहा जा सकता। यही बात धर्म की है। मात्र सत्प्रवृत्ति को धर्म मानने से धर्म अव्यापक नहीं बनता। धर्म की आवश्यकता
धर्म जीवन में क्यों आवश्यक है, इस प्रश्न का समाधान महर्षियों और साधकों की वाणी में मिलता है। संसार में दुःख था, है और रहेगा, पर मनुष्यों को दुःख इष्ट नहीं है। अतः वे इसे मिटाने का प्रयत्न करते हैं। आधि भौतिक, आधि दैविक और आध्यात्मिक तीनों ही प्रकार के दुःखों का नाश सत्प्रवृत्तिरूप धर्म से होता है। इसलिए धर्म की आवश्यकता होती है। यदि संसार में दुःख नहीं होता तो दुराचारी व्यक्ति अपनी बुराइयां कभी नहीं छोड़ते। दुःख होता है, इसलिए वे बुराइयां छोड़ते हैं।
धर्म मनुष्य को दुःख-समुद्र से पार उतारता है। संसार एक अर्णव है। उसका पार पाने के लिए मनुष्य-शरीर नौका है और जीवन नाविक है। नाविक यदि नशेड़ी होता है तो वह नाव को पार नहीं लगा सकता।
___ एक नाविक भंग पीकर नाव में बैठा। नशे में उसने सारी रात नाव चलाई, पर वह वहीं रहा। सुबह होते ही उसकी स्त्री पानी लेने नदी पर
आई। उसे देख नाविक ने पूछा-'तू यहां कैसे आ गई?' उसे तो यह विश्वास था कि मैं गांव से बहुत दूर आ गया हूं।' स्त्री ने कहा-'मैं तो यहां सदा ही आती हूं।' यह सुनते ही वह संभला। देखा तो उसने पाया कि नाव का रस्सा खुला ही नहीं है। वह बहुत शरमाया।
___ सचमुच नशे में मनुष्य बेभान और पागल बन जाता है। जब जीव रूपी नाविक मोह के नशे में बेभान और पागल बन जाता है, तब वह भटकता है। इसलिए स्वस्थ नाविक की तरह आत्मा भी शुद्ध चाहिए। यदि जीव रूपी नाविक स्वस्थ होगा तो सत्प्रवृत्ति की धारा उसे भवसमुद्र से पार लगा देगी। चूंकि सत्प्रवृत्ति धर्म है, इसलिए दुःख-समुद्र से पार उतरने के लिए धर्म की आवश्यकता होती है। धर्म का स्थान
धर्म न तो खान से निकलता है और न वह बाड़ी में ही पैदा होता है। वह न गोदाम में रखा जाता है, और न मंजूषा में ही। न वह बाजार में मिलता है और न घर में ही। उसका एकमात्र स्थान शुद्ध-पवित्र आत्मा है। भगवान महावीर ने कहा-धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ। यहां यह
धर्म और समाज
.२७९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org