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________________ ११६ : धर्म और समाज धर्म व्यक्तिसापेक्ष है या समाजसापेक्ष–यह आज का विचारणीय विषय है। धर्म और समाज दो शब्द हैं, दोनों की व्याख्याएं भी स्वतंत्र हैं। धर्म शब्द धृ धातु में म प्रत्यय लगने से बना है। धारणात् धर्मः वा ध्रियते इति धर्मः इस व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ से धर्म आधार और आधेय दोनों है। सत्प्रवृत्तियां धारण करने से आधार और शुद्ध आत्मा में रहने से आधेय है। धर्म शब्द अनेक अर्थों में व्यवहृत होता है। जहां धर्म शब्द का अर्थ स्वभाव किया जाए, वहां सत्प्रवृत्ति और असत्प्रवृत्ति दोनों ही धर्म है। असत्प्रवृत्ति बुरे आदमी का धर्म बन जाती है और सत्प्रवृत्ति अच्छे आदमी का धर्म। क्रोधी का स्वभाव है-गाली देना तथा शांत व्यक्ति का स्वभाव है-शांति रखना। इस माने में गाली देना और शांति रखना दोनों ही बातें धर्म है। आचरण के इस क्षेत्र में हम धर्म शब्द का जो प्रयोग करते हैं, उसका अर्थ स्वभाव नहीं है। इस क्षेत्र में हम आत्मशुद्धि के साधन को धर्म कहते हैं। जिस आचार और प्रवृत्ति से जीवन शुद्ध बनता है, वह धर्म है। __ इस परिभाषा से दोनों में अंतर हो गया। पहली परिभाषा के अनुसार जहां सत्प्रवृत्ति और असत्प्रवृत्ति दोनों ही धर्म है, वहीं दूसरी परिभाषा के अनुसार मात्र सत्प्रवृत्ति धर्म है। कोई कह सकता है कि तब तो धर्म व्यापक से अव्यापक बन गया। बात सर्वथा गलत तो नहीं है। व्यापक संसार में से अगर हम एक हिंदुस्तान को लेते हैं तो वह अव्यापक-सा लगता है, पर दूसरी दृष्टि से वह भी व्यापक है। उसमें कितने राज्य हैं, एक राज्य में कितने शहर हैं, एक शहर में कितनी सड़कें हैं, एक सड़क पर कितने मोहल्ले हैं, एक मोहल्ले में कितने .२७८ . - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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