________________
११७ : शांति का स्रोत
आज जनता असहाय है । राजनीतिक नेताओं से उसे त्राण नहीं है, उनसे उलटी उसे निराशा ही महसूस हो रहा है। वह एक असहाय की भांति त्राहि-त्राहि कर रही है। मनुष्य शांति का श्वास नहीं ले पा रहा है, आनंद का उसे आस्वाद नहीं मिल पा रहा है। यह एक बड़ा खेद का विषय है, परंतु शांति मिले भी तो कहां से? मानव ने पथ ही अशांति का चुन लिया है। यदि बाह्य उपकरणों में ही शांति होती तो अमेरिका जैसा साधनसंपन्न और धनी राष्ट्र कभी अशांत नहीं होता। शांति का अजस्र स्रोत व्यक्ति-व्यक्ति की आत्मा के अंतर में निहित है। उसका उद्गम स्थल बाह्य उपकरण नहीं, हमारी आत्मा है। इस उद्गम स्थल पर एक आवरण छाया हुआ है, जो कि आत्मान्वेषण करने से हटेगा । आत्मान्वेषण का अर्थ है-अपने-आपका अपने-आप निरीक्षण । जब आत्मान्वेषण होगा तो मनुष्य स्वभावतः स्वयं को दुष्प्रवृत्तियों से विमुख बना सद्प्रवृत्तियों से जोड़ देगा । मैं बहुधा कहा करता हूं कि मनुष्य दूरवीक्षण यंत्र न बनकर दर्पण बने। क्यों? यह इसलिए कि दूरवीक्षण में तो दूर का दृश्य दिखाई देता है, लेकिन अपना दृश्य, अपना प्रतिबिंब और अपनी आकृति तो दर्पण में ही देखी जा सकती है। जब मनुष्य अपना जीवन इतना अनैतिक देखेगा तो सहसा उसके हृदय में एक कंपन पैदा होगा और इस कंपन से ही उसके जीवन में एक नया परिवर्तन प्रारंभ हो जाएगा ।
व्रत समुद्र की तरह अपार है। समुद्र को उठाकर उसके पानी का उपयोग नहीं किया जा सकता। इसके लिए मानव को पानी की सीमा कर घड़े का उपयोग करना होगा; और तभी वह पानी उसके लिए उपयोगी बन पाएगा। यही स्थिति व्रत की है। व्रत अपने आपमें बहुत ही व्यापक और कल्याणकारी तत्त्व है। उपयोग की दृष्टि से अणुव्रत और महाव्रत–ये दो विभाग कर लिए जाते हैं। जब व्यक्ति अणु पर आ
• २८२
ज्योति जले : मुक्ति मिले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org