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आपकी अनुमति हो तो खा लूं।' वैद्य ने कहा-'न खाना ही अच्छा है, पर तुम्हारी इतनी इच्छा है तो कभी-कभार थोड़ा-सा खा लेना।' हलवे की छूट मिलते ही रोगी ने दूसरी इच्छा और व्यक्त कर दी। बोला-'वैद्यजी! हलुवे की तरह ही मुझे बड़े खाने का भी अत्यधिक शौक है। आप कह दें तो थोड़े बड़े खा लूं।' वैद्य ने पूर्व भाषा में इसकी भी स्वीकृति दे दी, पर रोगी यहीं न रुका। वह रबड़ी, आइस्क्रीम आदि अनेक पदार्थों के लिए आगे से आगे पूछने लगा। वैद्य को झुंझलाहट आ गई। वह बोला-'जाओ, मेरा सिर मत खाओ, शेष सब-कुछ खा लेना।'
धर्म के क्षेत्र में आज ऐसी-सी ही स्थिति देखने में आ रही है। धर्म के वास्तविक फलित-आत्मविशुद्धि की बात भुलाई जा रही है। लोग धार्मिक उपासना इसलिए करते हैं कि उनका भ्रष्टाचार, शोषण, चोरबाजारी, असत्याचरण आदि पापकारी प्रवृत्तियां धड़ल्ले से चलती रहें। सचमुच यह बहुत बड़ी विडंबना है। इससे धर्म बदनाम होता है। मैं परंपरावादी लोगों से कहना चाहूंगा कि वे अब एक नया मोड़ लें। वे धर्म की आत्मा तक पहुंचने का प्रयत्न करें। धर्म का मर्म हृदयंगम करने की मानसिकता बनाएं। उसे जीवन-व्यवहार में उतारने की दिशा में प्रस्थान करें। उपासना को केवल रूढ़ि के रूप में नहीं, अपितु आत्म-विशुद्धि की प्रेरणा के रूप में अपनाएं। उसे पाप-प्रक्षालन के आश्वासन के रूप में नहीं, अपितु पापकारी प्रवृत्तियों से मुक्त होने के मार्ग के रूप में स्वीकार करें। इससे उन्हें अपनी उपासना का सही-सही लाभ मिल सकेगा। वे अपने जीवन में शांति और पवित्रता की अनुभूति कर सकेंगे।
बुद्धिवादी लोगों को पुनः इस बात के लिए प्रेरित करता हूं कि वे श्रद्धा की शक्ति और मूल्य समझते हुए श्रद्धाशील बनें। यदि ऐसा होता है तो बुद्धिवादी और परंपरावादी लोगों के बीच पड़ी खाई अपने-आप पट जाएगी। धर्म का निखरा रूप जन-जन के सामने आएगा।
आज का युग और धर्म
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