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________________ कि अच्छी से अच्छी वस्तु का भी दुरुपयोग संभव है। विज्ञान के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। वह श्रद्धाहीन लोगों के हाथों में पड़ गया है। वे उसका दुरुपयोग कर रहे हैं। इस कारण वह बदनाम हो रहा है। इसलिए विज्ञान को भला-बुरा कहने की अपेक्षा उसे श्रद्धाहीन व्यक्तियों से बचाने की जरूरत है। यही बात धर्म के लिए भी है। श्रद्धाशून्य बौद्धिक लोगों के हाथों धर्म का कोई हित होनेवाला नहीं है । वे धर्म के प्रति गलत वातावरण निर्मित करते हैं। बहुत सही तो यह है कि धर्म टिकता ही श्रद्धाशील मानस में है। श्रद्धाशीलता के बिना उसके टिकने का आधार ही नहीं बनता। यह प्रसन्नता की बात है कि युग अब एक नई करवट ले रहा है। मैं बड़ी तीव्रता से अनुभव कर रहा हूं कि बौद्धिक वर्ग श्रद्धा का मूल्य समझने लगा है। इससे भी आगे वह श्रद्धा के मूल्य को उसकी सही प्रतिष्ठा दिलाने के लिए प्रयत्नशील है। धर्मोपासना का उद्देश्य दूसरी कोटि के लोग परंपरावादी होते हैं। उनकी मनः स्थिति बड़ी विचित्र होती है। वे धर्म का मर्म समझने का प्रयत्न ही नहीं करते। ऐसी स्थिति में उनके जीवन में धर्म आए भी कैसे ? उन्होंने समझ रखा है कि दिन में भले कितना ही पाप करें, एक बार मंदिर में गए, साधु-संतों के चरणों पर शिर रगड़ा कि सारा पाप समाप्त। बंधुओ ! यह कितनी बड़ी विडंबना है ! मैं मानता हूं, भले कोई व्यक्ति मंदिर जाए, पूजा-पाठ करे, साधु-संतों की संगत करे, सामायिक पौषध करे, पर जब तक धर्म का सही रूप उसके जीवनगत नहीं होता, उसका कल्याण असंभव है। यदि उपासना इसलिए की जाती है कि भविष्य में पाप या दुष्कर्म ज्योंका-त्यों चलता रहे तो यह सर्वथा अनुचित है। यह दृष्टिकोण धर्म के अनुकूल नहीं, अपितु धर्म को अपने स्वार्थ के अनुकूल बनाने का है। ऐसी उपासना से आत्मोदय का उद्देश्य कैसे पूरा हो सकता है ? दवा रोग मिटाने के लिए होती है, पर जिस व्यक्ति के समक्ष यह लक्ष्य नहीं होता, वह तो दवा इसलिए खाता है कि जितना भी खाया जाए, वह पच जाए। ऐसी स्थिति में उसका रोग कैसे मिटे ? वैद्य के पास एक रोगी आया । वैद्य ने नब्ज देखकर दवा बता दी। साथ ही परहेज बताते हुए कहा- 'तेल, गुड़, खटाई और मिठाई मत खाना।' रोगी बोला- 'वैद्यजी ! मुझे हलुआ खाने का बहुत शौक है। ज्योति जले : मुक्ति मिले • २७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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