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________________ है, वहां धर्म नहीं है। वैसे तो धर्म की कोई मोहर-छाप नहीं होती, उसका कोई चिह्न नहीं होता, तथापि कोई मोहर-छाप और चिह्न माना जाए तो वह एकमात्र विवेक है। पूछा जा सकता है कि विवेक से क्या तात्पर्य है। विवेकः पृथगात्मता-विवेक पृथक्करण का नाम है। किसका पृथक्करण ? सत और असत का पृथक्करण। यह क्रिया अच्छी है और यह क्रिया बुरी है, यह बात वाच्य है और यह वाच्य नहीं है, यह तत्त्व ग्राह्य है और यह तत्त्व ग्राह्य नहीं है. इस प्रकार की पहचान और पृथक्करण विवेक है। जिस व्यक्ति के जीवन में यह विवेक की बात अच्छे ढंग से आ जाती है, वह सहज रूप में धार्मिक बन जाता है। इसके विपरीत खाना, पीना, सोना, उठना, बैठना आदि जितनी भी आवश्यक क्रियाएं हैं, वे यदि विवेकशून्य हैं तो अधार्मिकता प्रकट होती है। इसलिए अपेक्षित है कि व्यक्ति अपनी विवेक-चेतना जगाए। जिस सीमा तक उसकी यह चेतना जाग्रत होती है, उस सीमा तक उसकी धार्मिकता उजागर हो जाती है। श्रद्धा का मूल्य समाज में दो तरह के लोग हैं। एक बुद्धिवादी और दूसरे पारंपरिक विश्वासों को महत्त्व देनेवाले। बुद्धिवादी लोगों का अपना चिंतन होता है। वे केवल परंपराओं या सिद्धांतों की दुहाई से आकृष्ट नहीं होते। वे आकृष्ट होते हैं युक्तिपूर्वक समझाने से, पर उनमें प्रायः धर्म टिकता नहीं। इसका कारण स्पष्ट है। वे श्रद्धाशून्य बन रहे हैं। श्रद्धा के बिना सम्यक ज्ञान कैसे आएगा? श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-श्रद्धावान् लभते ज्ञानं, तत्परः संयतेन्द्रियः। कुछ लोग श्रद्धा और ज्ञान-विज्ञान को परस्पर विरोधी तत्त्व समझते हैं, पर मेरी दृष्टि में यह समझ सही नहीं है। श्रद्धा तो धर्म और विज्ञान के बीच की कड़ी है। मैं मानता हूं, जिस दिन श्रद्धा के माध्यम से धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के निकट आएंगे, परस्पर जुड़ेंगे, उस दिन विकास की अनेक नई-नई दिशाएं उद्घाटित हो जाएंगी। अणुबम से आज कौन परिचित नहीं है? उसका आविष्कार इसलिए नहीं हुआ था कि वह लाखों-लाखों प्राणियों का नाश करे, लेकिन वह श्रद्धाहीन व्यक्तियों के हाथों में पड़ गया। इस कारण सारा संसार संत्रस्त हो रहा है। ऐसा कहा जाता है कि अणु का आविष्कारक पागल हो गया • २७२ . - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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