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सकता, बल्कि उनके बारे में सोच भी नहीं सकता, पर आज की त्रासदी यह है कि धर्म धर्मग्रंथों और धर्मस्थानों में कैद-सा हुआ पड़ा है। ऐसी स्थिति में वह अपना असर कैसे दिखा सकता है ? इसलिए यह नितांत अपेक्षित है कि धर्म को धर्मग्रंथों एवं धर्मस्थानों से बाहर निकालकर धार्मिक के जीवन और जीवन-व्यवहार में प्रतिष्ठित किया जाए। धार्मिक का जीवन ही उसका सही स्थान है। धर्म का शुद्ध स्वरूप
पर धर्म के स्वरूप के बारे में लोगों में भ्रांतियां बहुत हैं। इसलिए वे धर्म के नाम से ऐसी-ऐसी बातें चला रहे हैं, जिनका कि उससे कोई संबंध नहीं है, बल्कि दूर का भी संबंध नहीं है। आप पूछेगे कि धर्म का शुद्ध स्वरूप क्या है। धर्म का शुद्ध स्वरूप है
• विश्व-मैत्री की भव्य भित्ति पर,
सत्य-अहिंसा के खंभों पर, टिका हुआ है महल मनोहर, सदा सचेतन सत्य धर्म की जय हो जय। शांति-निकेतन सत्य धर्म की जय हो जय॥ वर्ण जाति का भेद न जिसमें, लिंग रंग का छेद न जिसमें. निर्धन-धनिक विभेद न जिसमें, समता-शासन सत्य धर्म की जय हो जय। शांति-निकेतन सत्य धर्म की जय हो जय॥ करुणा-केतन जैन धर्म की जय हो जय॥
धर्म की जय हो जय॥ - धर्म का प्रासाद विश्वमैत्री की भव्य भित्ति पर टिका हुआ है।
अहिंसा और सत्य उसके दो सुदृढ़ खंभे हैं। उसमें वर्ण, वर्ग जाति, संप्रदाय, लिंग, रंग आदि का कोई भेद नहीं है। निर्धन और धनवान का भी उसमें कोई अंतर नहीं है। वह संसार के सभी मनुष्यों को, बल्कि समस्त प्राणियों को समान रूप से अपनी शरण देता है।
सत्य धर्म को पहचाने
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