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विचलित करने का बहुत प्रयास किया गया, पर हमारा सौभाग्य मानना चाहिए कि ऐसा निम्नस्तरीय विरोध देखकर भी हमने अपना धैर्य नहीं खोया, हम विचलित नहीं हुए। कदाचित धैर्य खोकर विचलित हो जाते तो वर्षों से संचित सहिष्णुता का तत्त्व हम गंवा बैठते।
खैर, जो कुछ होना था, वह हुआ। पर अंत में सत्य ही भगवान हैयह कथन सार्थक हुआ। लोगों ने सही तत्त्व का अंकन किया। उन्हें वास्तविकता समझ में आई। बावजूद इसके, इतना सुनिश्चित है कि इस कारण महानगर में जिस व्यापक स्तर पर कार्य करने की हमारी तमन्ना थी, समाज के सभी वर्गों को लक्ष्य रखकर हमने जो कार्य-योजना बनाई थी, उसके अनुरूप कार्य करने की गति में कुछ मंदता आई। गहराई से देखा जाए तो यह क्षति हमारी नहीं, अपितु इस नगर, नगर के नागरिकों और आचार की हुई। चारित्रिक शुद्धि के अभियान का जितना लाभ यहां के नागरिकों को मिलना चाहिए था, उतना नहीं मिल सका। वे उससे काफी अंश में वंचित रह गए। अस्तु, जबकि अब मैं विदा हो रहा हूं, कलकत्ता-वासियों का दायित्व है कि वे चरित्र-शुद्धि की दिशा में हमारे द्वारा चलाए गए अभियान को जन-जन में अमर बनाने के लिए निष्ठापूर्वक प्रयास करें, ताकि गतिरोध से हुई क्षति की पूर्ति हो सके। कलकत्तावासियों में भी अधिक दायित्व उन लोगों का है, जिनके कारण यह अवांछित गतिरोध पैदा हुआ।
तेरापंथी लोगों से इस अवसर पर एक बात विशेष रूप से कहना चाहता हूं। आप लोग मेरे अनुयायी कहलाते हैं, भक्त कहलाते हैं। आपकी अब सही कसौटी है। यहां से प्रस्थित होने के पश्चात जब मैं यह सुनूंगा कि तेरापंथियों की दुकानें ऐसी हैं कि जहां मिलावट नहीं होती, अनैतिकता और भ्रष्टाचार नहीं होता, शोषण नहीं चलता; वे अपनी चरित्र-शुद्धि का ध्यान हर क्षेत्र में रखते हैं, तो मुझे सात्त्विक प्रसन्नता होगी। सिर्फ दर्शन और उपासना करने से वह प्रसन्नता नहीं हो सकती।
विदाई के इस प्रसंग पर मैं उन सबसे सरल हृदय से खमतखामणा करता हूं, जिनके प्रति विरोध करने के कारण किसी प्रकार की उच्चावच भावना आई हो। जब मैं यहां से प्रस्थान ही कर रहा हूं, तब यह भार साथ क्यों ले जाऊं ? आशा है, मेरे ये विचार उन लोगों तक पहुंचेंगे। कलकत्ता, १५ नवंबर १९५९
चरित्र-शुद्धि का अभियान आगे बढ़ाएं
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