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इस पथ पर चलने का निर्णय लेता है। इस संदर्भ में योग्यता की कसौटी की बात भी समझ लेनी चाहिए। उम्र इसकी कोई सही कसौटी नहीं है। व्यक्ति को जब अपने हिताहित का भान होने लगे और वह दीक्षा लेने को तत्पर हो, तभी उसे दीक्षा के योग्य समझा जाता है। इसके पश्चात भी एक अवधि तक उसके विचारों की परीक्षा की जाती है। इस परीक्षा की प्रक्रिया से गुजरने के पश्चात जब यह विश्वास हो जाता है कि अमुक व्यक्ति का निश्चय अटल है, तब उसे दीक्षा दी जाती है। दीक्षा लेने के पश्चात व्यक्ति का लक्ष्य अविश्रांत रूप से स्व-पर का कल्याण करना होता है। त्याग के इस पथ पर बढ़नेवाले लोग सचमुच अभिनंदनीय होते हैं और उनका यह अभिनंदन, अभिनंदन करनेवालों के लिए भी गौरव व सम्मान की बात होती है। दीक्षा का उद्देश्य और लक्ष्य
दीक्षा या सर्वत्याग के संदर्भ में एक बात और स्पष्ट कर दूं। दीक्षा ख्याति, नाम और प्रतिष्ठा की प्राप्ति के लिए नहीं होती। उसका तो एकमात्र उद्देश्य आत्माराधना होता है। भौतिक अभिसिद्धियों के लिए त्याग-पथ स्वीकार करना करोड़ों-अरबों की संपत्ति कौड़ी के बदले लुटाने के समान है। त्यागी या दीक्षार्थी का चरम लक्ष्य आत्म-उज्ज्वलता करते हुए परमात्म-पद प्राप्त करना होता है। दीक्षा स्वीकार करनेवाले व्यक्ति के समक्ष उद्देश्य एवं लक्ष्य की स्पष्टता बहुत आवश्यक है। सही उद्देश्य एवं सही लक्ष्य से होनेवाली गति ही सार्थक होती है।
कलकत्ता ७ नवंबर १९५९
दीक्षा : क्या और क्यों
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