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________________ आलोचना का विषय बना लेते हैं, पर मैं नहीं समझता कि जब वे त्याग की आवश्यकता स्वीकार करते हैं, तब त्यागी की आवश्यकता अस्वीकार कैसे करते हैं। उन्हें त्यागी की आवश्यकता स्वीकार करनी ही होगी। तेरापंथ की दीक्षा दीक्षा सर्वत्याग का मार्ग है। यों तो सभी धर्मों की दीक्षा में संन्यासियों के लिए अनेक प्रकार के नियम हैं, पर जैन-दीक्षा के नियम अपेक्षाकृत अधिक कठिन हैं। उसमें भी तेरापंथ की दीक्षा के नियम तो और भी कठोर हैं। तेरापंथ की दीक्षा में शास्त्रीय मर्यादाओं के साथ-साथ संघीय मर्यादाओं का भी पूर्ण रूप से पालन करना होता है। वहां संयमसाधना के लिए करो या मरो-यह एक ही लक्ष्य सामने रहता है। दीक्षित हो जाने के पश्चात साधु-साध्वियों का खान, पान, शयन आदि सारी प्रवृत्तियां संघीय विधि-विधानानुसार होती हैं। फिर एक और महत्त्वपूर्ण बात है। दीक्षित साधु-साध्वियों को एक आचार्य के अखंड अनुशासन एवं नेतृत्व में रहना होता है। इस प्रकार के अनुशासन एवं मर्यादाओं में रहकर त्याग का जीवन जीना अपने-आपमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। सबको इस बारे में प्रामाणिक जानकारी करनी चाहिए और इस संबंध में गंभीरता से चिंतन करना चाहिए। जिस युवक व युवती का परस्पर में वैवाहिक संबंध तय हो, जिस युगल का भावी जीवन भोग-विलास में व्यतीत होनेवाला हो और जो भौतिक अभिसिद्धि की दृष्टि से संपन्न हो, उस युगल द्वारा भोग-विलास से मुंह मोड़कर तेरापंथ के कड़े अनुशासन में दीक्षा के लिए तैयार होना, निःसंदेह त्याग की पराकाष्ठा का ही द्योतक है। दीक्षार्थी की अर्हता ___ पूछा जा सकता है कि दीक्षार्थी कौन होता है। दीक्षार्थी वही होता है, जो संसार से विरक्त हो, संसार के भोग-विलास से विरक्त हो। जिसके हृदय में यह विरक्ति नहीं जागी, वह दीक्षार्थी नहीं हो सकता। दीक्षार्थी के संदर्भ में एक बात और समझ लेने की है। दीक्षार्थी बनाया नहीं जाता, बल्कि अंतर में वैराग्य के अंकुर फूटने से व्यक्ति स्वयं दीक्षार्थी बनता है। वैसे इस सत्कार्य के लिए प्रेरणा देकर भी किसी योग्य व्यक्ति को तैयार किया जाए तो कोई अनुचित बात नहीं है। इसके बावजूद अंतिम सचाई यही है कि बनाने से कोई दीक्षार्थी नहीं बनता, व्यक्ति स्वयं .२५४ - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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