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________________ १०५ : दीक्षा : क्या और क्यों त्याग कितना किया जाए भारतीय परंपरा में सदा से ही त्याग को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। भारत में भोगी - विलासी व्यक्ति भी बहुत हुए, पर यहां महत्त्व त्याग और त्यागी व्यक्तियों को ही मिला है। मैं मानता हूं, यह भारतीय संस्कृति की अपनी एक विशेषता और महत्ता है। यहां के बड़े-बड़े सम्राटों के शिर अकिंचन भिक्षुओं, श्रमणों एवं संन्यासियों के चरणों में झुके हैं, पर समझने की बात यह है कि उनका वह झुकना उन अकिंचन संन्यासियों के वेश के प्रति नहीं, अपितु उनके द्वारा अध्यात्म-साधना हेतु किए गए त्याग के प्रति था । प्रश्न है कि त्याग कितना किया जाना चाहिए। इसका उत्तर यही है कि त्याग यथाशक्ति होना चाहिए। अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य की अनदेखी करनेवाला त्याग मार्ग से फिसल जाता है। अगर शक्ति एक उपवास करने की है तो आप एक ही करें और आप यदि एक से अधिक करने की शक्ति रखते हैं तो अधिक करें। यही तो कारण है कि आदर्श पर चलनेवाले सब नहीं होते, थोड़े ही होते हैं, पर वे थोड़े ही व्यक्ति वास्तव में समाज का पथ-दर्शन करते हैं। आज जबकि अणुव्रती बनते भी लोग सकुचा रहे हैं, तथ्यहीन सामाजिक रीति-रिवाजों का परित्याग नहीं कर पा रहे हैं, ऐसे में यह बिलकुल असंभव बात है कि सब लोग महाव्रती बन जाएं। अणुव्रती और महाव्रती में बहुत बड़ा अंतर होता है। अणुव्रती तो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का यथाशक्ति पालन करता है, जबकि महाव्रती के लिए यह अनिवार्य है कि वह सर्वथा अहिंसक हो, संपूर्ण सत्यवादी हो, सब प्रकार की चोर-वृत्ति का त्यागी हो, परिपूर्ण अपरिग्रही हो व कामिनी से रहित हो । महाव्रतों की साधना में कोई छूट नहीं होती, जबकि अणुव्रती को छूट होती है। वह अपनी इच्छानुसार प्रतिज्ञाएं करता है। कैसी बात है कि कुछ बौद्धिक लोग दीक्षा जैसी बात को भी निरी दीक्षा : क्या और क्यों २५३ • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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