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का चिंतन बिलकुल स्पष्ट और स्वस्थ रहना चाहिए। वह हिंसा को हिंसा और अहिंसा को अहिंसा माने। जिस सीमा तक हिंसा छोड़ना शक्य हो, उस सीमा तक अहिंसा का पथ स्वीकार करे और जो हिंसा अशक्य की कोटि में हो, उसे हिंसा ही माने, अहिंसा मानने की दोहरी भूल न करे।
कलकत्ता
४ अक्टूबर १९५९
अहिंसा व्यवहार में आए
--२४१.
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