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________________ १०० : अहिंसा व्यवहार में आए अहिंसा धर्म का प्राणतत्त्व है। उसके दो प्रकार हैं-सैद्धांतिक अहिंसा और व्यावहारिक अहिंसा । सिद्धांत की अहिंसा अपने स्थान पर है। उसे जानना और हृदयंगम करना आवश्यक है, पर इससे भी अधिक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है व्यवहार की अहिंसा | हमारा प्रत्येक व्यवहार, फिर भले वह किसी स्तर का क्यों न हो, ऐसा होना चाहिए, जिसमें अहिंसा की पुट स्पष्ट रूप से झलके । हमारी वाणी ऐसी होनी चाहिए, जिसमें लोगों को अहिंसा के दर्शन हों। इसी प्रकार हमारा साहित्य, हमारे सिद्धांत और विचार ऐसे होने चाहिए, जिन्हें पढ़-सुनकर व्यक्ति के मन में विकार पैदा न हो, जो कि हिंसा का बीज है । यही अहिंसा की व्यावहारिक और साक्षात अनुभूति है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में ग्रहण करना चाहिए। संक्षेप में कहा जाए तो अप्रमाद अहिंसा है, और प्रमाद हिंसा है। जीवन में जितना जितना अप्रमाद का विकास होता है, उतना उतना व्यक्ति अहिंसा के निकट जाता है। हर व्यक्ति को चाहिए कि मानसिक, वाचिक और कायिक कोई प्रवृत्ति करते समय वह प्रमाद से बचने का लक्ष्य रखे | मैं यह बात स्वीकार करता हूं कि गृहस्थ का जीवन पूर्ण अहिंसक नहीं हो सकता। उसके लिए एक सीमा तक हिंसा करनी ही पड़ती है, पर इस संदर्भ में एक बात समझने की है। आवश्यक या अनिवार्य होने के कारण हिंसा को अहिंसा मानना उचित नहीं है। उसे हिंसा ही माना जाना चाहिए। अफीम को अफीम समझकर खाना उतना बुरा नहीं, जितना बुरा उसे गुड़ समझकर खाना है, क्योंकि उसका परिणाम बहुत ही अनिष्टकर आता है। हिंसा को अहिंसा मानने से समाज में अनेक प्रकार की गलत धारणाएं पैदा होती हैं। मुझे इस बात की आशंका है कि इन गलत धारणाओं के कारण लोग अपना बहुत बड़ा अहित कर सकते हैं। इसलिए अपेक्षा है कि हिंसा और अहिंसा के संदर्भ में व्यक्ति ज्योति जले : मुक्ति मिले २४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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