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९८ : एक दिव्य महापुरुष : आचार्य भिक्षु*
आचार्य भिक्षु अठारहवीं शताब्दी के एक दिव्य महापुरुष थे । महापुरुष किसी एक समाज, जाति या वर्ग के नहीं होते। वे तो सबके होते हैं, क्योंकि वे सबके हित एवं कल्यण की बात कहते हैं । इसी लिए वे सभी कि लिए स्तुत्य एवं वंदनीय होते हैं।
आचार्य भिक्षु ने स्थानकवासी संप्रदाय में दीक्षा ग्रहण की, पर वैचारिक विभेद एवं चारित्रिक शिथिलता के कारण उन्होंने उससे अपना संबंध तोड़ लिया और स्वतंत्र रूप में विहरण करने लगे। इस पृथक्त्व के परिणामस्वरूप उन्हें अनेक कष्ट झेलने पड़े। यहां तक कि जैन घरों से उन्हें भिक्षा भी नहीं मिल पाती। कोई कदाच उन्हें रोटी-पानी दे देता तो उसे दंड का भागी बनना पड़ता। ऐसी स्थिति में हर कोई उन्हें भिक्षा देने की हिम्मत कर भी कैसे सकता था ? पर आचार्य भिक्षु तो साहस के पुतले थे। उन्होंने कष्टों के समक्ष हार नहीं मानी। वे अपने स्वीकृत पथ पर अनवरत चलते रहे, कहीं मुड़े नहीं, कहीं रुके नहीं। उनका यह साहस और धैर्य धीरे-धीरे रंग लाया। लोगों में उनका प्रभाव बढ़ने लगा। उसके फलस्वरूप उनका तेरापंथ संघ उत्तरोत्तर विकास करने लगा। हजारों-हजारों लोग उसके साथ जुड़ गए।
जैन - वाङ्मय की अमूल्य निधि
अपने क्रांतिकारी विचारों को जन-जन में प्रचारित करने के लिए उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएं कीं। उनकी समग्र रचनाओं का गाथापरिमाण लगभग अड़तीस हजार पद्य है। उनका वह साहित्य जैन - वाङ्मय की एक अमूल्य निधि है । दो शताब्दियों के पश्चात भी वह हमारा मार्गदर्शन कर रहा है। अपेक्षा है, उनके साहित्य का गंभीरता से अनुशीलन किया जाए।
*एक सौ सत्तावन वें भिक्षु चरमोत्सव के अवसर पर प्रदत्त प्रवचन का अंश ।
ज्योति जले : मुक्ति मिले
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